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मोहाष्टकम्-4 अहं ममेति मन्त्रोऽयं, मोहस्य जगदान्ध्यकृत् । अयमेव हि नञ्पूर्वः प्रतिमन्त्रोऽपि मोहजित् ॥ १ ॥
भावार्थ : "मैं और मेरा" यह मोह राजा का मंत्र है, वह जगत् को अंधा करने वाला है और नकारपूर्वक यही विरोधी मंत्र भी बन जाता है। वही मोह को जीतने वाला है ॥१॥ शुद्धात्मद्रव्यमेवाहं, शुद्धज्ञानं गुणो मम । नान्योऽहं न ममान्ये चेत्यदो मोहास्त्रमुल्बणम् ॥ २ ॥
भावार्थ : मैं शुद्ध आत्मद्रव्य हूँ केवल ज्ञान मेरा गुण है और इस कारण मैं भिन्न नहीं हूँ, न अन्य पदार्थ मेरे हैं, इस प्रकार का चिन्तन मोह का नाश करने वाला तीव्र शस्त्र है ॥२॥ यो न मुह्यति लग्नेषु, भावेष्वौदयिकादिषु । आकाशमिव पङ्कन नासौ पापेन लिप्यते ॥३॥
भावार्थ : जो लगे हुवे औदयिक भावों में नहीं फंसता, वह जीव पाप से लिप्त नहीं होता । वैसे ही जैसे आकाश कभी कीचड़ से लिप्त नहीं होता ॥३॥ पश्यन्नेव परद्रव्य, नाटकं प्रतिपाटकम् । भवचक्रपुरस्थोऽपि, नामूढः परिखिद्यति ॥ ४ ॥