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भावार्थ : अनादि अनंत कर्म परिणाम राजा की राजधानी स्वरूप भवचक्र नामक नगर में रहने पर भी एकेन्द्रिय आदि नगर के दरवाजे-दरवाजे पर-द्रव्य का जन्म जरा मरणादि रूप नाटक देखती हुई मोह रहित आत्मा खिन्न नहीं होती ॥४॥ विकल्पचषकैरात्मा, पीतमोहासवो ह्ययम् । भवोच्चतालमुत्ताल प्रपञ्चमधितिष्ठति ॥ ५ ॥
भावार्थ : विकल्प रूप मदिरा पात्रों के द्वारा मोह मदिरा पीने वाला यह जीव निश्चय ही जहा हाथ ऊचे करके तालियाँ बजाने की चेष्टा की जाती है, ऐसे संसार रूप अड्डे का आश्रय लेता है ॥५॥ निर्मलं स्फटिकस्येव, सहज रूपमात्मनः । अध्यस्तोपाधिसंबन्धो जडस्तत्र विमह्यति ॥ ६ ॥
भावार्थ : आत्माका स्वाभाविक सिद्ध स्वरूप स्फटिक जैसा निर्मल है उसमें उपाधि का संबंध आरोपित करके अविवेकी जीव उसमें फंसता है ॥६॥ अनारोपसुखं मोह-त्यागादनुभवन्नपि । आरोपप्रियलोकेषु, वक्तुमाश्चर्यवान् भवेत् ॥ ७ ॥
भावार्थ : मोह के त्याग से आरोप रहित स्वभाव के सुख का योगी अनुभव करता हुआ भी, झूठा जिन्हें प्रिय है