Book Title: Gyansara Ashtak Author(s): Yashovijay Publisher: Ashapuran Parshwanath Jain Gyanbhandar View full book textPage 6
________________ यस्य ज्ञानसुधासिन्धौ, परब्रह्मणि मग्नता । विषयान्तरसंचार स्तस्य हालाहलोपमः ॥ २ ॥ भावार्थ : जिसे ज्ञानस्वरूप अमृत सागर ऐसे पर ब्रह्म अर्थात् परमात्मा में लीनता होती है, उसे अन्य विषयों में हो रही प्रवृत्ति जहर के समान अनिष्ट लगती है ॥२॥ स्वभावसुखमग्नस्य, जगत्तत्त्वावलोकिनः । कर्तृत्वं नान्यभावानां साक्षित्वमवशिष्यते ॥ ३॥ भावार्थ : सहज स्वभाव के आनंद में मग्न तथा जगत् के स्वरूप का यथार्थ द्रष्टा आत्मा को अन्य पदार्थों का कर्त्ता भाव नहीं रहता, मात्र साक्षी - भाव रहता है ||३|| परब्रह्मणि मग्नस्य, श्लथा पौद्गलिकी कथा । क्वामी चामीकरोन्मादाः स्फारा दारादराः क्व च ॥ ४ ॥ भावार्थ : परब्रह्म अर्थात् परमात्म स्वरूप में लीन आत्मा को पुद्गल की बातें भी नीरस लगती हैं । तो उसे सुवर्ण का अभिमान और स्त्रियों में ( भोग में) आदर कहाँ से होगा ? ॥४॥ तेजोलेश्याविवृद्धिर्या, साधोः पर्यायवृद्धितः । भाषिता भगवत्यादौ सेत्थम्भूतस्य युज्यते ॥ ५॥ भगवती आदि सूत्रों में बताया गया है साधु को पर्याय वृद्धि से तेजोलेश्या वृद्धि होती है, वह कथन ऐसे अध्यात्म दशा में मग्न साधुओं में ही घटित होता है ॥५॥ ६Page Navigation
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