Book Title: Gyansara Ashtak
Author(s): Yashovijay
Publisher: Ashapuran Parshwanath Jain Gyanbhandar

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Page 4
________________ है । शुद्ध स्वभावयुक्त पूर्णानंदमय भगवान् अर्थात् शुद्ध आत्मा तो स्थिर समुद्र के समान शान्त होता है ॥३॥ जागर्ति ज्ञानदृष्टिश्चेत्, तृष्णाकृष्णाहिजाङ्गुली । पूर्णानन्दस्य तत् किं स्याद् दैन्य-वृश्चिक-वेदना ? ॥४॥ __भावार्थ : तृष्णा रूप काले नाग के जहर का नाश करने वाले गारुड़ी मंत्र के समान तत्त्वज्ञान रूपी दृष्टि जिसकी जागृत है, उस पूर्णता के आनंद का उपभोग करने वाले ज्ञानी को दीनता रूप बिच्छु के डंक की वेदना क्यों हो सकती है? ॥४॥ पूर्यन्ते येन कृपणा, - स्तदुपेक्षैव पूर्णता । पूर्णानन्दसुधास्निग्धा दृष्टिरेषा मनीषिणाम् ॥ ५ ॥ भावार्थ : जिस धन धान्य को पाकर कृपण लोग पूर्णता का अनुभव करते हैं, उन्हीं बाह्य पदार्थों की उपेक्षा करके ज्ञानी पुरुष पूर्णता का अनुभव करते हैं, एसी पूर्णता के आनन्दरुप अमृत से स्निग्धदृष्टि तत्त्वज्ञानीयों/मनीषियों की होती हैं ॥५॥ अपूर्णः पूर्णतामेति, पूर्यमाणस्तु हीयते । पूर्णानन्दस्वभावोऽयं जगदद्भुतदायकः ॥ ६ ॥ भावार्थ : जो धन धान्य आदि बाह्य भावों से अपूर्ण है, वही वास्तव में पूर्ण है। और जो बाह्य पदार्थों से अपने को पूर्ण करता रहता है, वह वास्तव में अपूर्ण है। पूर्णता में आनंद का अनुभव करने वाली आत्मा का स्वभाव जगत को आश्चर्यचकित कर देने वाला है ॥६॥

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