Book Title: Granth Pariksha Part 01
Author(s): Jugalkishor Mukhtar
Publisher: Jain Granth Ratnakar Karyalay

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Page 11
________________ उमास्वामि-श्रावकाचार । कभी हो नहीं सकता । ऐसा करना उनकी योग्यता और पदस्थके विरुद्ध ही नहीं, बल्कि एक प्रकारका नीच कर्म भी है । जो लोग ऐसा करते हैं उन्हें, यशस्तिलकमें, श्रीसोमदेव आचार्यने साफ तौरसे 'काव्यचोर' और 'पातकी' लिखा है । यथा:___“ कृत्वा कृती: पूर्वकृता पुरस्तात्मत्यादरं ताः पुनरीक्षमाणः । तथैव जल्पेदथ योऽन्यथा वा स काव्यचोरोस्तु स पातकी च ॥ लेकिन पाठकोंको यह जानकर और भी आश्चर्य होगा कि इस ग्रंथमें जिन पयोंको ज्योंका त्यों या कुछ बदलकर रक्खा है वे अधिकतर उन आचायोंके बनाये हुए ग्रंथोंसे लिये गये हैं जो सूत्रकार श्रीउमास्वामिसे अनेक शताब्दियोंके पीछे हुए हैं । और वे पद्य, ग्रंथके अन्य स्वतंत्र बने हुए पद्योंसे, अपनी शब्दरचना और अर्थगांभीर्यादिके कारण स्वतः भिन्न मालूम पड़ते हैं । और उन माणिमालाओं ( ग्रंथों) का स्मरण कराते हैं, जिनसे वे पद्यरत्न लेकर इस ग्रंथमें गूथे गये हैं। उन पयोमेसे कुछ पद्य, नमूनेके तौरपर, यहां पाठकोंके अवलोकनार्थ प्रगट किये जाते हैं:(१) ज्योंके त्यों उठाकर रक्खे हुए पद्य क-पुरुषार्थसिद्धयुपायसे । " आत्मा प्रभावनीयो रत्नत्रयतेजसा सततमेव। दानतपोजिनपूजाविद्यातिशयैश्च जिनधर्मः ॥६६ ॥ ग्रंथार्थोभयपूर्ण काले विनयेन सोपधानं च। बहुमानेन समन्वितमनिह्नवं ज्ञानमाराध्यम् ॥ २४९ ॥ संग्रहमुच्चस्थानं पादोदकमर्चनं प्रणामं च। वाक्कायमनःशुद्धिरेषणशुद्धिश्च विधिमाहुः ॥ ४३७ ॥

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