Book Title: Gommatasara Karma kanad Part 2
Author(s): Nemichandra Siddhant Chakravarti, A N Upadhye, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatiya Gyanpith
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कर्णाटवृत्ति जीवतत्त्वप्रदीपिका - उब्बेन्लणविज्झादो अद्धापवत्तो गुणो य सव्वो य ।
संकमदि जेहि कम्मं परिणामवसेण जीवाणं ॥४०९॥ उद्वेल्लनो विध्यातोऽथाप्रवृत्तो गुणश्च सर्वश्च संक्रमति यैः कम परिणामवशेन जीवानां ॥
यैर्भागहारैः उद्वेल्लनावि आउ केलउ भागहारंगळिद कर्म ज्ञानावरणाद्यशुभकर्ममुं आहारकद्वयाविशुभकम्मंगळू जीवानां संसारिजीवंगळ परिणामवशेन शुभाशुभपरिणामवदिदं ५ संकामति परप्रकृतिस्वरूपदिदं परिणमिसुगुमा भागहारंगळु उद्वेल्लनविष्यात अथाप्रवृत्त गुण सव्वंसंक्रमभागहारंगळे वितु पंचप्रकारंगळप्पुवु । संक्रमस्वरूपमं पेळ्वपरु :
बंधे संकामिज्जदि गोबंधे णत्थि मूलपयडीणं ।
दसणचरित्तमोहे आउचउक्के ण संकमणं ।।४१०॥ बंधे संक्रामति नोऽबंधे नास्ति मूलप्रकृतीनां । दर्शनचरित्रमोहे आयुश्चतुष्के न संक्रमणं ॥ १०
बंधे संक्रामति बध्यमानपात्रकोळ संक्रमिसुगुमे बुदिदुत्सर्गविधियक्कुमेके बोर्ड क्वचिदबध्यमानदोळं संक्रममुंटप्पुरवं नोबंधे अबंधो संक्रमणमिल्ले बुदनत्यंकवचनमप्पुरिद । वर्शनमोहनीयमं बिट्टन्यत्र बध्यमानपात्रदोळ एंदितु नियममरियल्पडुगुं। नास्ति मूलप्रकृतीनां शानावरणाविमूलप्रकृतिगळ्गे परस्परं संक्रमणमिल्लुत्तरप्रकृतिगळगे स्वस्थानसंक्रमणमुंटे बुदर्थमल्लियु वर्शनमोहनीयक्कं चारित्रमोहनीयक्कं संक्रमणमिल्ल। नारकतिय्यंग्मनुष्यदेवायुष्यंगळ्गेयु १५
यैः शुभाशुभं कर्म संसारिजीवानां परिणामवशेन संक्रामति परप्रकृतिरूपेण परिणमति, ते भागहाराः उदल्लनविध्यातापःप्रवृत्तगुणसर्वसंक्रमनामानः पंच संभवंति ॥४०९॥ संक्रमस्वरूपमाह
बंधे बध्यमानमात्रे संक्रामति इत्ययमत्सर्गविधिः क्वचिदबध्यमानेऽपि संक्रमात. नोबंधे अबंधे न संक्रामति इत्यनर्थकवचनाद्दर्शनमोहनीयं विना शेषं कर्म बध्यमानमात्रे एव संक्रामतीति नियमो ज्ञातव्यः । मूलप्रकृतीनां परस्परं संक्रमणं नास्ति उत्तरप्रकृतीनामस्तीत्यर्थः । तत्रापि दर्शन चारित्रमोहयोः चतुर्णामायुषां २०
जिन भागहारोंके द्वारा शुभ और अशुभ कर्म संसारी जीवोंके परिणामोंके वश अन्य प्रकृतिरूप होकर परिणमन करते हैं वे भागहार पाँच हैं-उद्वेलन, विध्यात, अधःप्रवृत्त, गुणसंक्रम, सर्वसंक्रम ॥४०९॥
संक्रमणका स्वरूप कहते हैं
जिस प्रकृतिका बन्ध होता है उस प्रकृतिमें अन्य प्रकृति उस रूप होकर परिणमन २५ करती है। यह सामान्य कथन है क्योंकि कहीं-कहीं जिसका बन्ध नहीं है उसमें भी संक्रमण होता है। 'जिसका बन्ध नहीं है उसमें संक्रमण नहीं होता। इससे अभिप्राय यह है कि दर्शन मोहनीयके बिना शेष कर्म जिसका बन्ध हो रहा है उसीमें संक्रमित होते हैं ऐसा नियम जानना। किन्तु मूल प्रकृतियों में संक्रमण नहीं होता जैसे ज्ञानावरण, दर्शनावरण बादि रूप नहीं होता। उत्तर प्रकृतियों में संक्रमण होता है। किन्तु दर्शनमोह और चारित्रमोहमें संक्रमण नहीं होता। दर्शनमोहकी प्रकृति चारित्रमोहकी प्रकृतिरूप नहीं परिणमन करती और चारित्र मोहकी प्रकृति दर्शनमोहरूप परिणमन नहीं करती। इसी तरह चारों
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