Book Title: Gnatadharmkathang ka Sahityik evam Sanskrutik Adhyayan
Author(s): Rajkumari Kothari, Vijay Kumar
Publisher: Parshwanath Vidyapith
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________________ प्राकृत आगम परम्परा एवं ज्ञाताधर्मकथांग (11) प्रमाणन्यतत्त्वालोक में कहा गया है कि कर्मों के क्षय हो जाने से जिनका ज्ञान सर्वथा निर्मल एवं शुद्ध हो गया है ऐसे आप्त पुरुषों द्वारा प्रतिपादित सिद्धान्तों का संकलन ही आगम है।१।। इस प्रकार कुछ विशिष्ट परिभाषाओं से स्पष्ट होता है कि अर्हत्, तीर्थंकर, सर्वज्ञ, सर्वदर्शी एवं महापुरुषों के प्रामाणिक वचन या उनके वचनों के आधार पर विशिष्ट लब्धिधारी (पूर्वधरों) आचार्यों द्वारा रचित ग्रन्थ आगम, श्रुत आदि नामों से प्रतिपादित किए जाते हैं। आगम परम्परा ___ भगवान महावीर के समय से धर्मग्रन्थों में जिज्ञासा रखनेवाले व्यक्ति अपने गुरुओं से विनयपूर्वक धर्मवाणी का श्रवण करते थे और उन पाठों को कंठस्थ करके स्वाध्याय के माध्यम से सुरक्षित रखते जाते थे। श्रवण एवं स्मरण की यह परम्परा बहुत लम्बे काल तक चलती रही। यद्यपि समय की आवश्यकता के अनुरूप उन्हें लिपिबद्ध किया गया। उस समय शास्त्रों की भाषा पर विशेष ध्यान दिया जाता था, जो भी उच्चारण किया जाता था, वह मात्रा, अनुस्वार, विसर्ग आदि को ध्यान में रखकर किया जाता था। यदि एक भी अक्षर, मात्रा आदि दोषयुक्त होती थी, तो उसे अनर्थ का कारण माना जाता था। जैन परम्परा में सूत्रों की पद संख्या का खास विधान था। तत्कालीन शिक्षा-पद्धति में किस सूत्र का उच्चारण किस प्रकार किया जाय और उच्चारण करते समय किन-किन दोषों से दूर रहना चाहिए इस बात की पूरी जानकारी पाठकों को रहती थी। इस प्रकार शुद्ध रीति से एकत्रित किए गए श्रुत साहित्य को गुरु अपने शिष्यों को प्रदान करते थे और शिष्य उस ज्ञान को पुन: अपने शिष्यों को प्रदान करते थे। इस तरह यह धर्मशास्त्र स्मरण (स्मृति) के द्वारा ही सुरक्षित रखे जाते थे। इस बात का सबसे बड़ा प्रमाण यह है कि वर्तमान में भी शास्त्रों के लिए श्रुत, स्मृति और श्रति शब्दों का प्रयोग किया जाता है। जिस प्रकार ब्राह्मण परम्परा में पूर्व के शास्त्रों को श्रुति और बाद के शास्त्रों को स्मृति कहा जाता है। उसी प्रकार जैन परम्परा में सर्वप्राचीन ग्रन्थों को श्रुत कहा जाता है। __ आचारांग में 'सूयं में' शब्द का प्रयोग बार-बार आने से यह स्पष्ट है कि यह शास्त्र सुने हुए हैं और बाद में भी सुनते-सुनाते ही चलते आए हैं।२ 1. आप्तवचनादाविर्भूतमर्थसंवेदनमागमः प्रमाणनयतत्त्वालोक-४/१,२. 2. नन्दीचूर्णि, पृ०-८. Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org