Book Title: Gnatadharmkathang ka Sahityik evam Sanskrutik Adhyayan
Author(s): Rajkumari Kothari, Vijay Kumar
Publisher: Parshwanath Vidyapith
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________________ ज्ञाताधर्मकथांग का साहित्यिक अध्ययन 107 करूण रस बन्धु-विनाश, अपघात, द्रव्य-नाश आदि से जो वेदना उत्पन्न होती है वह करूण रस है। ज्ञाताधर्मकथा में करूण रस का कहीं न कहीं किसी न किसी रूप में अवश्य समावेश हुआ है। यथा- मेघकुमार के अन्तर्मन में दीक्षा के भाव उत्पन्न होने पर माता धारिणी जल की धारा, निर्गुडी के पुष्प और टूटे हुए मुक्तावली हार के समान अश्रू टपकाती हैं, रोती हैं क्रन्दन करती हैं और विलाप करती हैं। इसके अतिरिक्त भी इसी प्रसंग में मेघकुमार को सम्बोधित करते हुए कहा गया है कि जिस समय तुम हाथी की पर्याय में थे उस समय तुम वहाँ जीर्ण, जरा से जर्जरित, व्याकुल, भूखे, प्यासे थे।२ यह भी करूण रस का एक उदाहरण है। रौद्र रस ___जहाँ विरोधी दल की छेड़खानी, अपमान, उपकरण, गुरुजन-निंदा तथा देश और धर्म के अपमान आदि से प्रतिशोध की भावना जागृत हो वहाँ रौद्र रस होता है। सुंसुमा अध्ययन में सुंसुमादारिका का सिर काटने वाला दृश्य रौद्र रस को इंगित करता है। इसी तरह अन्य रसों का भी कथाओं में समावेश हुआ है। वीभत्सरस के दृश्य मल्ली अध्ययन में कई जगह दिखाई पड़ते हैं। यथा- गाय के मृत कलेवर, कुत्ते के मृत कलेवर, सिंह आदि के मृत कलेवर के समान दुर्गन्धपूर्ण अशचिमय यह प्रतिमा है।" सुंसुमा अध्ययन में वमन झरने५ को अशुचिपूर्ण दर्शाया गया है। रस योजना में कथाकार ने वस्तु की सुन्दरता, कुरूपता, मधुरता, कटुता, वीभत्सता आदि का उक्ति वैचित्र्य से कथन करके रमणीयता की अनुभूति करा दी है। यही नहीं अपितु कथाकार ने रसानुभूति के भावों से परिपूर्ण प्रसंगों को उपस्थित * करके मानव के लिए कर्तव्य और अकर्तव्य का बोध भी कराया है। ज्ञाताधर्मकथांग में लोकोक्तियाँ एवं सूक्तियाँ लोकोक्ति का अर्थ है- जनसाधारण. के दैनिक अनुभवों से उपलब्ध शक्तियों को उक्ति वैचित्र्य के द्वारा व्यंजित करना। लोकोक्ति वाक्यात्मक होती है जिसका अर्थ उचित सन्दर्भ में ही किया जाता है। ज्ञाताधर्मकथा में भी अभिव्यक्ति को प्रभावशाली बनाने के लिए कहीं-कहीं पर लोकोक्तियों का प्रयोग किया गया है। जैसे प्रभात - 1. ज्ञाताधर्मकथांग 1/158. 2. वही, 1/168. .. 3. वही, 12/14. 4. वही, 18/30. 5. वही, 18/32. Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org