Book Title: Gnatadharmkathang ka Sahityik evam Sanskrutik Adhyayan
Author(s): Rajkumari Kothari, Vijay Kumar
Publisher: Parshwanath Vidyapith
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________________ ज्ञाताधर्मकथांग का साहित्यिक अध्ययन 109 शरीर ही हो सकता है। 'खंतस्स दंतस्स जिइंदियस्स एत्तो एगमविण भवइ' 1 ‘धम्मरुइस्स अणगारस्स सव्वओ।'२ अणगार की धर्म रुचि सब तरह से होती है। 'जं जलणाम्मि जलंते, पडइ पयंगो अबुद्धिओ'।३ बुद्धिहीन पतंगा जलती हुई अग्नि में गिरता है। 'वहबंध तितिरो पत्तो'। पिजरे में बंधे तितर वध और बंधन को प्राप्त होते हैं। 'जं खणइ मत्थयं कुंजरस्स लोहंकुसो तिक्खो'५ पराधीन हाथी महावत के लोहे के अंकुश को सहन करता है। ऐसी अनेक दृष्टान्त प्रधान सूक्तियाँ इस आगम में हैं। मुहावरे ज्ञाताधर्म में मुहावरों के प्रयोग भी प्राप्त होते हैं। मुहावरे भाषा को काव्यात्मक या रोचक बनाने वाले अद्भुत साधन हैं। जब कोई संज्ञा, विशेषण या क्रिया आदि मुख्यार्थ के अतिरिक्त अन्य अर्थ में प्रसिद्ध हो जाते हैं तब वे महावरे कहलाने लगते हैं। मुहावरों में वस्तु तथ्य एवं घटनाएँ समाहित रहती हैं। इसकी व्यंजकता के कारण अभिव्यक्ति रुचिकर एवं आकर्षक बन जाती है। मुहावरों के कई प्रकार कहे गए हैं, यथा- वक्रक्रियात्मक, वक्रविशेषात्मक, अनुभवात्मक, निदर्शनात्मक, प्रतीकात्मक, रूपात्मक, उपमात्मक 5 इत्यादि। ज्ञाताधर्मकथा में महावरों का प्रयोग लाक्षणिक और व्यंजक दोनों ही रूपों में हआ है। कथाकार ने पात्रों के भावावेश, मनोभाव एवं मनोदशा को प्रभावशाली बनाने के लिए कहीं-कहीं पर जो अभिव्यंजना की है वह हृदयस्पर्शी है। यथा- सरिसे णं तुमं पउमणाभा। अर्थात् तुम कुएं के मेढक के सदृश हो। दोवईए णं देवीए छिन्नस्स वि पायंगुट्ठयस्स अयं तव ओरोहे। अर्थात् देवी के कटे हुए पैर के अंगूठे की सौवीं कला की भी बराबरी नहीं कर सकता। दोवई साहतिथं उवणेमि।८ अर्थात् द्रौपदी को हाथो-हाथ ले आता हूँ। बुज्झाहि भयवं! लोगनाहा!९ अर्थात् बुझो तो बोध पाओ। तए णं से सामुद्दए ददुरे तं कुवददुरं।१० अर्थात् जो कुएं का मेढक होता है उसको समुद्र का मेढक कहना। पाएहिं सीसे पोट्टे कायंसि।११ पैर की पैर से 1. ज्ञाताधर्मकथांग, 14/51. 2. वही, 16/19. 3. वही, 17/30, गाथा 4 4. वही, 17/30, गाथा 2. 5. वही, 17/90, गाथा 10. 6. जैन आराधना, जयोदय महाकाव्य का शैलीवैज्ञानिक अनुशीलन, पृ० 19, प्रकाशक महावीर विहार गंज वासोदा 1994. 7. ज्ञाताधर्मकथांग 16/148. 8. वही, 16/165. 9. वही, 8/165. १०.वही, 8/120. 11. वही, 1/161. Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org