Book Title: Gnatadharmkathang ka Sahityik evam Sanskrutik Adhyayan
Author(s): Rajkumari Kothari, Vijay Kumar
Publisher: Parshwanath Vidyapith
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________________ ज्ञाताधर्मकथांग का भाषा विश्लेषण स्वरलोप सन्धि– ज्ञाताधर्मकथा में स्वरलोप की प्रवृत्ति अधिक पायी जाती है। यथा- जेणेव तेणेव 4/11, जेण-एव, तेण-एव, अगुतिंदिए 4/10, तहेव 5/ 22, लोगुत्तामेणं 1/8, राईसर 7/4, राअईसर। (ब) व्यंजन सन्धि- ज्ञाताधर्मकथा में प्राय: व्यञ्जन सन्धि का प्रयोग नहीं पाया जाता है। परन्तु कुछ नियम इस प्रकार है। (1) “अ' के बाद आए हुए विसर्ग की जगह उस पूर्व "अ' के साथ ओ हो ___जाता है यथा- कोणिओ निग्गओ धम्मो कहिओ 1/5 णमो 8/181 नमः। (2) पद के अन्त में “म्' का अनुस्वार होता है यथा- रज्जं च रटुं च, कोसं च, कोट्ठागारं च 1/.15 / (3) “म्" से परे स्वर रहने पर विकल्प से अनुस्वार होता है। यथा- मझमझेणं 1/113, सुहसुहेण 9/21 // (4) बहुलाधिकार रहने से हलन्त अन्त्य व्यञ्जन का भी म होकर अनुस्वार होता है। यथा- एवं 14/34 / (5) वर्ग के अन्तिम ङ, ज्, ण और न के स्थान में पश्चात् व्यञ्जन होने पर अनुस्वार हो जाता है। यथा- णंदिमिन्ते 8/184 पंच- पञ्च 8/181 : मंडल-तलो 9/23 / (6) अव्यय सन्धि- ज्ञाताधर्मकथा के अनुसार अव्यय पदों में सन्धि कार्य करना . : अव्यय सन्धि है यथा- दोच्चं पि तच्चं पि 4/8 णं इह 1/10, जंबुत्ति ... 1/9 / 38. अव्यय . ... लिङ्ग, विभक्ति और वचन के अनुसार जिनके रूपों में व्यय (अर्थात् घटती-बढ़ती) न हो उसे अव्यय कहते हैं। ज्ञाताधर्मकथा में प्रयुक्त अव्यय के पाँच वर्ग हो सकते हैं- उपसर्ग, क्रिया विशेषण, समुच्चयादि बोधक, मनोविकार सूचक, अतिरिक्त अव्यय। (1) उपसर्ग जो अव्यय क्रिया से पूर्व आते हैं, उन्हें उपसर्ग कहते हैं - - प पक्खिवेइ 7/8 . परि परियणस्स 7/6 जा अप Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org