Book Title: Gnatadharmkathang ka Sahityik evam Sanskrutik Adhyayan
Author(s): Rajkumari Kothari, Vijay Kumar
Publisher: Parshwanath Vidyapith

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Page 159
________________ 146 . ज्ञाताधर्मकथांग का साहित्यिक एवं सांस्कृतिक अध्ययन रहित एवं नरसंघातक होते थे।१ यद्यपि जैन परम्परा में चाण्डाल द्वारा भी श्रमण दीक्षा लेने का उल्लेख है। इस आधार पर यह कहा जा सकता है कि तत्कालीन जैन समाज में चाण्डाल को भी औरों की भाँति समान अधिकार प्राप्त थे। . इनके अतिरिक्त ज्ञाताधर्मकथांग में निम्न जातियों के रूप में नाई, मयूर पोषक का नाम भी आता है किन्तु आलंकारिक पुरुष (नाई) की स्थिति संतोषप्रद होती थी। राजा द्वारा इनको यथायोग्य सम्मान प्राप्त होता था। जब कोई राजा या राजकुमार दीक्षा लेने जाते थे तो उनका मुण्डन नाई ही करता था। नाई सुगंधित पदार्थों से हाथ पैर धोकर मुंह पर श्वेत वस्त्र बांधकर बाल को काटता था। इसी प्रकार मयूर पोषकों को भी राजा द्वारा जीविका हेतु द्रव्य मिलता था।३।। कुटुम्ब प्राचीनकाल में संयुक्त परिवार प्रथा प्रचलित थी। यह एक प्रकार की संस्था होती है इसी के कारण मनुष्य का उत्थान सम्भव था। जैन सत्रों से यह विदित होता है कि परिवार में माता-पिता, पुत्र, भाई, बहन के मध्य परस्पर प्रगाढ़ प्रेम. होता था। वे एक-दूसरे के सुख-दुःख के भागीदार होते थे। माता-पिता, भाई-बहिन के अतिरिक्त शादी के बाद एक परिवार और इस संस्था में जुड़ जाता था। जिसमें सास-ससुर मुख्य होते थे। संयुक्त परिवार में पति-पत्नी, पुत्र-पुत्री, माता-पिता, पुत्र-वधू, धाय माता, दास-दासी, नौकर-नौकरानियाँ एक साथ रहते थे। परिवार में पिता की देवता के समान पूजा की जाती थी।६ पिता समय-असमय अपने पत्रों-पुत्रवधुओं की परीक्षा लिया करते थे। राजा भी अपने पुत्रों को अत्यधिक सम्मान देता था। श्रेणिक राजा अपने पुत्र अभयकुमार की मंत्रणा से ही राज्यकार्य संचालित करता था। राजा जब प्रव्रज्या ग्रहण करता था तो अपने ज्येष्ठ पत्र को राजकार्य सौंप देता था।९ परिवार में पुत्री को भी सम्मान प्राप्त था।१० शिक्षा एवं विद्याभ्यास प्राचीनकाल से ही शिक्षा सुनियोजित तथा सुव्यवस्थित रूप से प्रदान की जाती थी। हाँ! यह जरूर था कि वह शिक्षा गुरु के पास (गुरुकुल) जाकर प्राप्त की 1. ज्ञाताधर्मकथांग 2/9. 2. वही, 1/39. 3. वही, 3/24. 4. वही, 18/39. 5. वही, 8/83. 6. वही, 18/37. 7. वही, 7/5. 8. वही, 1/15. 9. वही, 8/10. 10. वही, 8/31, 34. Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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