Book Title: Gnatadharmkathang ka Sahityik evam Sanskrutik Adhyayan
Author(s): Rajkumari Kothari, Vijay Kumar
Publisher: Parshwanath Vidyapith
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________________ 138 . ज्ञाताधर्मकथांग का साहित्यिक एवं सांस्कृतिक अध्ययन (4) द्वन्द्व समास- दो या दो से अधिक संज्ञाएं एक साथ जहाँ आती हैं वही द्वन्द्व समास होता है। ज्ञाताधर्म में जहाँ कहीं भी गुणों, ऐतिहासिक पुरुषों या पश-पक्षियों का वर्णन किया गया है वहाँ पर एक से अधिक संज्ञाएं आ गई हैं। यथा- उसभं- तुरय- णर- मगर- विगह- वालग- किन्नर- रूरू सरम- चमरकुंजर- वणलय 5 पउमलय भतिचित।१ सगडीसागडं (7/28) / ज्ञाताधर्म के सभी अध्ययनों में एक साथ द्वन्द्व समास देखे जा सकते हैं। रोहिणी ज्ञात का छठा अनुच्छेद द्वन्द्ध समास से युक्त है। (5) द्विगु समास- जिस शब्द में पूर्व पद संख्यावाची हो उसे द्विगु समास कहते हैं, यथा- पंचसालिअक्खए 7/28, चोद्दसपुवो, चउनाणोवगए 1/4, एगदिसिं 1/111 / प्रथम अध्ययन के अनुच्छेद 199 में द्विगु समास की बहुलता है। यह तेरह पंक्तियों का अनुच्छेद है। (6) कर्मधारय समास- जिस समास में विशेष और विशेष्य हो उसे कर्मधारय समास कहते हैं, जैसे- सकुमालपाणिपाया 1/14, महावीर 1/4, महासमिणाणं 1/37, भद्दसण 1/153, विमलसलिल पुग्नं 1/150 / समासशैली एक वैज्ञानिक कला है जिसका प्रयोग करना अत्यन्त कठिन माना जाता है, परन्तु ज्ञाताधर्मकथा के कथानकों, घटनाओं एवं वर्णनात्मक विवेचनों में प्राय: समास पदों का प्रयोग हुआ है। इसकी प्रत्येक कथा के प्रत्येक अनुच्छेद समास पदों से जुड़े हुए हैं, महत्त्वपूर्ण हैं, क्योंकि लिखित साहित्य के प्रारम्भिक प्रयोग में ही समास पदों से युक्त वाक्य रचनाएं समास की लम्बी परम्परा का व्याख्यान करते हैं। समास अर्थात् संक्षेपीकरण की प्रवृत्ति मानवीय प्रयोगों का प्रमुख गुण रहा है। अत: ज्ञाताधर्मकथा के कथांश में समासों का प्रयोग भाषा की दृष्टि एवं काव्यानुशासन के कारण अत्यन्त महत्त्वपूर्ण कहा जा सकता है। 1. ज्ञाताधर्मकथांग, 1/31. Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org