Book Title: Gnatadharmkathang ka Sahityik evam Sanskrutik Adhyayan
Author(s): Rajkumari Kothari, Vijay Kumar
Publisher: Parshwanath Vidyapith

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Page 127
________________ हा 114 ज्ञाताधर्मकथांग का साहित्यिक एवं सांस्कृतिक अध्ययन 1. प्राकृतलक्षण में चण्ड ने प्राकृत को प्रकृति-सिद्ध माना है।१ 2. वररुचि ने अपने प्राकृतप्रकाश में प्रारम्भ में प्रकृति को ही महत्त्व दिया है।२ 3. आचार्य हेमचन्द्र ने प्रकृति को संस्कृत माना है, उससे आया हुआ शब्द प्राकृत है और यही तद्भव को व्यक्त करती है।३ 4. मार्कण्डेय ने प्राकृत सर्वस्व में कहा है प्रकृतिः संस्कृतम् तत्र भवं प्राकृतमुच्यते।४ / / 5. धनिक ने प्राकृत के बारे में निम्न विचार व्यक्त किया है प्रकृतेः आगतं प्राकृतम्। प्रकृतिः संस्कृतम्।५ . संजीवनी टीकाकार वासुदेव ने कहा है प्राकृतस्य तु सर्वमेव संस्कृतं योनिः।६ 7. लक्ष्मीधर ने कहा है- प्रकृतेः संस्कृतायास्तु विकृतिः प्राकृत मताः। 8. वाग्भट्ट ने कहा है- “प्रकृतेः संस्कृताद् आमतं,प्राकृतम्"।८ मूलत: उक्त व्याकरणकारों की दृष्टि में प्राकृत की उत्पत्ति संस्कृत से हुई है यह अर्थ प्रतीत होता है, परन्तु प्रकृति को ध्यान में रखकर यही कहा जा सकता है कि संस्कृत युक्त शब्द या संस्कृति शब्द का मूल तत्त्व जब नये रूप को धारण करता है तब वह प्राकृत के लिए उपर्युक्त बैठता है। आधुनिक विचार एवं भाषा दृष्टि से यही अर्थ निकलता है कि शब्दों को सामने रखकर जो प्रकृति के साथ उच्चरित किया जाता है वह प्राकृत बन जाता है। अर्थात् उच्चारण भेद के कारण संस्कृत जब अपने स्वाभाविक वचन व्यवहार की ओर चला जाता है 1. कवि चण्ड, प्राकृत लक्षणं सूत्र. 2. वररुयचि, प्राकृतप्रकाश सूत्र- 1. 3. आचार्य हेमचन्द्र, सिद्धहेमशब्दानुशासन, 8/1/1 "अथप्राकृतम्". 4. मार्कण्डेय, प्राकृतसर्वस्व, 1/1. 5. धनिक, दशरूपकटीका, परिच्छेद-२, श्लोक-६०. 6. वासुदेव, संजीवनी टीका, 9/2. 7. लक्ष्मीधर, षड्भाषा चन्द्रिका, पृ० 4, श्लोक-२५. 8. वाग्भट्ट, वाग्भट्टालंकार, 2/2. Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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