Book Title: Gnatadharmkathang ka Sahityik evam Sanskrutik Adhyayan
Author(s): Rajkumari Kothari, Vijay Kumar
Publisher: Parshwanath Vidyapith
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________________ 112 ज्ञाताधर्मकथांग का साहित्यिक एवं सांस्कृतिक अध्ययन देश्य शब्द थे जिन्हें भाषा की विशेषताओं के आधार पर निम्न नाम दिया गया (क) उदीच्च या उत्तरीय-विभाषा (ख) मध्यदेशीय-विभाषा (ग) प्राच्य या पूर्वीय विभाषा वैदिक या छांदस् भाषा के साथ प्राकृत भाषा का सम्बन्ध है क्योंकि जिन वैदिक भाषा के प्रयोगों को विभाषा कहा गया है वे प्राकृत की प्रकृति से पूर्णत: मिलते-जुलते हैं। अत: भाषा की आधारशिला पर प्राकृत भाषा को. वैदिक भाषा के समकालीन कहा जा सकता है। ख. मध्यकालीन आर्य भाषा काल वेदों में प्राकृत के तत्त्व हैं यह निर्विवाद है। विचारकों ने वैदिक भाषा में समागत शब्दों को जनभाषा का प्रयोग बतलाया और उसी के आधार पर जनभाषा के स्वरूप और प्रकृति को भी निर्धारित किया / जनभाषा और प्रकृति के तत्त्वों से जुड़ी हुई भाषा को प्राकृत भाषा कहा जा सकता है। डॉ० पी०डी० गुणे ने इस विषय में कहा है__प्राकृत का अस्तित्व निश्चित रूप से वैदिक बोलियों के साथ-साथ वर्तमान था। इन्हीं प्राकृतों से परवर्ती साहित्यिक प्राकृतों का विकास हुआ। वेदों एवं पण्डितों की भाषा के साथ-साथ यहाँ तक कि मन्त्रों की रचना के समय भी एक ऐसी भाषा प्रचलित थी जो पण्डितों की भाषा से अधिक विकसित थी। इस भाषा में मध्यकालीन भारतीय बोलियों की प्राचीनतम अवस्था की प्रमुख विशेषताएँ वर्तमान थीं। (ग) आधुनिक आर्य भाषा काल प्राकृत एवं अपभ्रंश के पश्चात् आर्य भाषा का आधुनिक रूप राजस्थानी, गुजराती, मराठी, सिंधी, बंगला आदि प्रचलित भाषा के अतिरिक्त हिन्दी नामकरण को प्राप्त है। मध्ययुग के पश्चात् अपभ्रंश ने बारहवीं शताब्दी तक अपना स्थान बनाये रखा और इसी के शब्द एवं धातु हिन्दी एवं आधुनिक आर्य भाषाओं में समाहित हो गये। प्राकृत भाषा का उद्भव एवं विकास प्राकृत का सम्बन्ध प्राचीन भारतीय आर्यभाषा परिवार से है जिसे उस समय 1. प्राकृत भाषा और साहित्य का आलोचनात्मक इतिहास, पृ० 7. . एन इन्ट्रोडक्शन टू कम्प्रेटीव फिलोसोपी, पृ० 163. Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org