Book Title: Gnatadharmkathang ka Sahityik evam Sanskrutik Adhyayan
Author(s): Rajkumari Kothari, Vijay Kumar
Publisher: Parshwanath Vidyapith
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________________ ज्ञाताधर्मकथांग का रचनाकाल,परिचय एवं नामकरण 27 की नामावली दी गई है। यह 3800 श्लोक प्रमाण है। इस ग्रन्थ के अन्त में आचार्य अभयदेव ने अपने गुरु का नाम जिनेश्वर बतलाया है। इसी विवरण में निवृत्तिकुलीन द्रोणाचार्य के नाम का भी उल्लेख है। ग्रन्थ के समापन में अणहिलपाटन नगर, वि० सं० 1120 विजयादशमी अंकित है।१ कृति का स्वरूप ज्ञाताधर्मकथा प्राकृत भाषा में निबद्ध भगवान महावीर के द्वारा उपदिष्ट है। यह प्राचीन कथाओं का प्रामाणिक एवं प्रतिनिधि ग्रन्थ है। यह बात सर्वविदित है कि कथाओं के माध्यम से व्यक्ति को कठिन से कठिन उपदेशों को आसानी से समझाया जा सकता है। इस अवधारणा पर यह ग्रन्थ खरा उतरता है। जहाँ एक ओर ऐतिहासिक दृष्टि से मेघकुमार, थावच्चापुत्र, मल्ली तथा द्रौपदी की कथाएँ हैं वहीं दूसरी ओर अवान्तर कथाओं की परम्परा के स्त्रोत के रूप में प्रतिबद्ध राजा, अर्हन्त्रक व्यापारी रुक्मी स्वर्णकार, चित्रकार आदि की कथाएँ मल्ली कथा की अवान्तर कथाएँ हैं। इसी के साथ अनेक काल्पनिक कथाओं जैसे जिनपाल, जिनरक्षित, तेतलीपुत्र, सुंसुमा, पुण्डरीक आदि का समावेश है। इसी के साथ-साथ अनेक कथाएँ दृष्टान्त प्रधान हैं यथा- (1) दो कछुओं की कथा- संयम-असंयम से युक्त, (2) तुम्बे की कथाकर्मावरण संबंधी, (3) रोहिणी ज्ञात- पंचमहाव्रत सम्बन्धी कथा, (4) शैलक- सम्यक्मार्ग से विचलित होने सम्बन्धी।। __रूपक कथाओं में धना सार्थवाह एवं विजय चोर की कथा, रोहिणी की पांच शाली की कथा, संमद्री अश्वों की कथा को लिया जा सकता है। पशु कथाओं का ज्ञाताधर्मकथा उद्गम स्थल है। मेरुप्रभ हाथी की अहिंसा भारतीय : कंथा साहित्य में अलौकिक है। - मूल पाठ का निर्धारण .. किसी भी प्राचीन कृति के मूलपाठ का निर्धारण करना हम जैसे अल्पज्ञों के लिए बहुत ही असाध्य एवं अप्रमाणिक है। मूल पाठ के निर्धारण में किसी भी एक प्रति को आदर्श मानकर निर्णय नहीं किया जाता है। इसके लिये मुख्यत: अर्थ मीमांसा, पूर्वापर प्रसंग, पूर्ववर्ती पाठ एवं ताड़पत्रिय हस्तलिखित पाण्डुलिपियों, अन्य आगम ग्रन्थों एवं मूल ग्रन्थ की टीकाओं, वृत्तियों आदि को ध्यान में रखा जाता है क्योंकि पाठ संशोधन में अनेक विचित्र पाठ एवं शब्दों का प्रयोग सामने आता 1. देखें जैन, जगदीशचन्द, जैन साहित्य का बृहद् इतिहास, पृ०-३७५ से 379. Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org