Book Title: Gnatadharmkathang ka Sahityik evam Sanskrutik Adhyayan
Author(s): Rajkumari Kothari, Vijay Kumar
Publisher: Parshwanath Vidyapith

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Page 84
________________ ज्ञाताधर्मकथांग की विषयवस्तु 17. आकीर्ण सत्रहवें अध्ययन में उत्तम जाति के अश्वों के माध्यम से विषयों और इन्द्रियों के वश में नहीं रहनेवालों का वर्णन किया गया है। हस्तशीर्ष नगर के व्यापारी जहाजों से विदेशों में व्यापार निमित्त जाते रहते थे। एक बार समुद्री तूफान में पड़कर वे कालिक द्वीप पर पहुंच गये वहाँ अपार स्वर्ण-चांदी लेकर पुन: लौट आए। वहीं पर उत्तम अश्वों को देखा जिसकी चर्चा कनककेतु के समक्ष अद्भुत एवं आश्चर्यजनक वस्तु के रूप में की गई है। ___ राजा ने उन व्यापारियों को पुन: उस द्वीप पर जाकर उन घोड़ों को लाने का आदेश दिया। व्यापारियों ने वहाँ जाकर विभिन्न विषय लोलुप सामग्री बिखेरकर अनेक अश्वों को पकड़ लिया। जो उस लोभ में नहीं पड़े वे बच गये।। ___सारांश रूप में कहा गया है कि जो विषयों में लिप्त होते हैं वे पराधीन बनते हैं एवं शेष स्वाधीन बने रहते हैं। “पराधीन सपनेहुँ सुख नाहीं।' जैन आगमों में दृष्टान्तों की बहुलता है। यहाँ पर भी कथाकार ने ताड़वृक्ष, सारसपक्षी, चक्रवाक, हंसपक्षी एवं विविध प्रकार के अश्वों को प्रस्तुत करके अनेक माध्यमों से यह सिद्ध किया है कि विषय-लोलुपता ही बन्धन का कारण है और विषयों से विमुक्ति विशुद्ध परिणामों का सूचक है। 18 सुंसुमा अट्ठारहवें अध्ययन में संसार की असारता को प्रतिपादित किया गया है। सुंसुमा एक छोटी बालिका है जिसका लालन-पालन बड़े प्यार से किया जाता है। उस बालिका को एक चिलात अत्यन्त श्रद्धा के साथ खेलाया करता था परन्तु वह अत्यन्त नटखट, दुष्ट एवं उदण्ड था। इसी कारण उसे घर से बाहर निकाल दिया गया। फलतः वह चिलातपुत्र इस कारण स्वछन्द प्रवृत्ति वाला हो गया। वह दुर्व्यसनों से युक्त जीवन व्यतीत करने लगा। अचानक उसे सिंह गुफा में चोरों के सरदार से मिलन हो गया। चिलात चोर पल्ली में साथ रहता हआ साहसी, निर्भीक एवं चौर्यकला में प्रवीण हो गया। चोर पल्ली के सरदार विजय की मृत्यु होने के पश्चात् स्वयं चोरों का सेनापति बन गया। ... चिलातपुत्र के मन में प्रतिशोध की भावना स्थित थी। इसलिए उसने धन्य सार्थवाह के घर को लूट लिया और सुंसुमा का अपहरण कर भागने लगा, चोरों के साथ भागता हुआ अंग नगर रक्षकों के द्वारा चिलातपुत्र देखा गया। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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