Book Title: Gnatadharmkathang ka Sahityik evam Sanskrutik Adhyayan
Author(s): Rajkumari Kothari, Vijay Kumar
Publisher: Parshwanath Vidyapith
View full book text
________________ ज्ञाताधर्मकथांग का साहित्यिक अध्ययन 101 धर्म एवं जीवन दर्शन का आभास भी होता है। - ज्ञाताधर्म की कथाओं में लोककल्याण की भावना है। उत्क्षिप्तज्ञात अध्ययन में महावीर के शिष्य आर्य सुधर्मा के ज्ञान, विनय, सत्य, शौर्य, चारित्र' आदि उदार आदर्शों का निरूपण उपदेशात्मक रूप में ही किया गया है। इसी अध्ययन में जम्बूस्वामी की जिज्ञासा को शांत करते हुए आर्य सुधर्मा ने कहा है कि गुरु उपदेश के बिना ज्ञान सम्भव नहीं, परन्तु कुछ ऐसे पुरुष भी होते हैं जो स्वयं ही बोध को प्राप्त हो जाते हैं।२ धन्य की प्रव्रज्या में निर्ग्रन्थ प्रवचन की प्रतीति को उपदेशात्मक रूप में ही व्यक्त किया गया है। साथ ही यह कहा गया है कि ज्ञान, दर्शन और चारित्र को वहन करने के अतिरिक्त व्यक्ति का अन्य कोई प्रयोजन नहीं होता।३ ज्ञाताधर्म की प्रत्येक कथा उपदेशजन्य है। कथाकार ने कहीं अण्डक को उपदेश का माध्यम बनाया है तो कहीं कर्म-सिद्धान्त का बोध कराने के लिए निर्जीव तुम्बक को, कहीं जलचर जीव कूर्म के माध्यम से संयत और असंयत भाव को समझाया है तो कहीं पाँच धान्य कणों को महाव्रतों का प्रतीक बतलाया है। जो व्यक्ति या साधु-साध्वी पंचमहाव्रत को स्वीकार कर पंचधान्य कणों की तरह वृद्धि करते हैं वे अधिक से अधिक आत्मा को निर्मल बनाते हैं। ऐसे ही बोधजन्य एवं उपदेशात्मक भावों से परिपूर्ण कथाएँ अहिंसा, सत्य, शील, तप, ध्यान, ज्ञान, समत्वभाव आदि की स्थापना करती हैं। 10. पारिवारिक जीवन चित्रण . ज्ञाताधर्म की ऐतिहासिक एवं पौराणिक कथाओं में माता-पिता, पुत्र-पुत्री, राजा-प्रजा, शत्रु-मित्र आदि के दृश्य पारिवारिक जीवन का चित्रण करते हैं। परिवार की सर्वव्यापी स्थिति का चित्रण प्रारम्भिक कथा में पूर्ण रूप से देखा जा सकता है जिसमें अभयकुमार * का जन्म, माताधारिणी की मनोकामना, राजा श्रेणिक का आदेश, पुत्र द्वारा प्रतिज्ञा पालन, जन्म उत्सव, नामकरण, पुत्र लालन-पालन, कला शिक्षण, गुरु का आदर्श . स्वरूप, कंचुकी का प्रतिवेदन, माता-पिता का संकल्प, माता का शोक, पुत्र का माता के प्रति स्नेहभाव, राज्य-व्यवस्था, विवाह, तपश्चरण आदि सभी कुछ समाहित हैं। इसी अध्ययन में भावात्मक घनिष्ठता का भी बोध होता है। द्वितीय संघाट अध्ययन 1. ज्ञाताधर्मकथांग, 1/4. 2. वही, 1/4. 3. “ननत्थ णाण दंसण-चरित्ताणं वहणयाए" वही, 2/53. 4. वही, 7/31. Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org