Book Title: Gnatadharmkathang ka Sahityik evam Sanskrutik Adhyayan
Author(s): Rajkumari Kothari, Vijay Kumar
Publisher: Parshwanath Vidyapith

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Page 85
________________ 72 ज्ञाताधर्मकथांग का साहित्यिक एवं सांस्कृतिक अध्ययन नगर रक्षकों ने निरन्तर पीछा करके चिलातीपुत्र को पकड़ लिया। धन सम्पत्ति देकर उसने नगर रक्षकों से पिण्ड छुड़ाया और सुंसुमा को लेकर भागने लगा। नगर रक्षक धन लेकर वापस लौट गये परन्तु पुत्री मोह से धन्य सेठ अपने पुत्रों सहित उसका पीछा करता रहा। कोई उपाय नहीं देख चिलातपत्र ने संसमा का गला काट दिया और धड़ को वही छोड़ भाग गया परन्तु उस भयानक अटवी में वह भी भूख-प्यास से मर गया। इधर धन्य सेठ एवं पुत्रों ने मृत सुंसुमा को देखकर बहुत विलाप किया। कुछ देर बाद उन्हें भयंकर भूख-प्यास का अनुभव हुआ। जोशं-जोश में इतनी दूर आ गये की कहीं भी पानी व भोजन का नामोनिशान तक नहीं मिला। प्राणों का संकट उपस्थित हो गया। तब धन्य सार्थवाह ने किंचित विचार कर कहा-तुम मेरा वध कर मेरे मांस से अपनी भूख एवं रक्त से प्यास बुझालो और सकुशल राजगृह पहुंचो। परन्तु पुत्रों ने इसे स्वीकार नहीं किया। सभी ने अपने लिए यह प्रस्ताव रखे परन्तु तय यह हुआ कि मृत सुंसुमा के शरीर से भूख प्यास बुझाकर राजगृह पहुंचा जाय। यही करके सभी यथासमय राजगृह पहुंचे एवं कालान्तर में प्रव्रज्या अंगीकार की। ___शास्त्रकार कहते हैं कि धन्य सेठ ने सुंसुमा के शरीर का उपयोग भोजन रूप या किसी शरीरपोषण या रस हेतु न करके सिर्फ राजगृह पहुंचने हेतु किया उसी तरह मुनि आहार आसक्ति या शरीर के लिए न करके लक्ष्य तक पहुंचने के लिए करता है। शास्त्र इसे अनासक्ति का सर्वोच्च उदाहरण मानता है। 19. पुण्डरीक उन्नीसवें अध्ययन में संसार की असारता एवं उतार-चढ़ाव का बताया गया है। पुण्डरीकिणी नगर में राजा महापद्म के पुण्डरीक एवं कण्डरीक ये दो पुत्र थे। एक बार धर्मघोष मुनि के उपदेश से प्रभावित होकर महापद्म पुण्डरीक को राज्य देकर दीक्षित हो गये। कालान्तर में किसी स्थविर मुनियों के आगमन से कण्डरीक भी दीक्षित हो गये। देश-देशान्तर भ्रमण एवं रुखा-सूखा आहार करने से कण्डरीक रोगाक्रान्त हो गये। भ्रमण करते हुए जब वे पुनः पुण्डरीकिणी नगर में आये तो संसारी भाई ने सेवा सुश्रुषा करके उन्हें पुनः स्वस्थ किया। परन्तु सेवा सुश्रुषा से कण्डरीक सुविधा भोगी होकर वहीं रहने लगे। पुण्डरीक के कहने पर लज्जावश विहार तो कर गये और कुछ दिन बाद राजप्रासाद की वाटिका में आ गये। मोह एवं संसार में आसक्ति देखकर पुण्डरीक ने उन्हें राज्य सौंप दिया और स्वयं उनका Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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