Book Title: Gnatadharmkathang ka Sahityik evam Sanskrutik Adhyayan
Author(s): Rajkumari Kothari, Vijay Kumar
Publisher: Parshwanath Vidyapith
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________________ 82 ज्ञाताधर्मकथांग का साहित्यिक एवं सांस्कृतिक अध्ययन किन्तु इस दृष्टि से ज्ञाताधर्म के पात्रों का चरित्र-चित्रण करने से पूर्व पात्रों का वर्गीकरण आवश्यक है। पात्रों का वर्गीकरण मूलत: पात्र दो प्रकार के होते हैं- (1) व्यक्तिवादी पात्र और (2) प्रतिनिधिपात्र। 1. व्यक्तिवादी पात्र वे पात्र जिनकी अपनी निजी विशेषताएँ होती हैं वे व्यक्तिवादी पात्र कहलाते हैं। ज्ञाताधर्म में जितनी भी कथाएँ हैं उनका प्रारम्भ पात्रों की निजी विशेषताओं को : लिए हुए हैं। प्रथम अध्ययन में अभयकुमार, मेघकुमार का कथानक विशिष्ट व्यक्तित्व का सूचक है। अभयकुमार विचारशील चिन्तनशील एवं मनोगत संकल्प से युक्त है। वह मानवीय उपयोगों से कार्य करना चाहता है। परन्तु जब उसमें समर्थ नहीं होता है तब वह देव आराधना में स्थित होकर अपने कार्य में सफल होता है। संघाट नामक अध्ययन का मूलपात्र विजय चोर है जो कला में निष्णात है। इसका सम्पूर्ण विवेचन चोर के मनोगत भावों को स्पष्ट करता है और उसकी परिणति कथा में मोड़ प्रदान करती है, फलत: सेठ के परिणाम भी दया के भाव से भर जाते हैं। शैलक अध्ययन में थावच्चापुत्र का अणगार मार्ग की ओर लगना इसी बात की ओर संकेत करता है।२ मल्ली का व्यक्तित्व विविध परिवर्तन के रूपों को लिए हुए है। मल्ली द्वारा सामायिक चारित्र की ओर बढ़ने का प्रसंग व्यक्ति को आध्यात्मिकता की ओर उन्मुख करता है। इसी तरह माकन्दी, तेतलिपुत्र, द्रौपदी आदि के चरित्र व्यक्तिवादी चरित्र हैं। इसमें मानवीय एवं सामाजिक तत्त्व चरम सीमा तक विकसित होते हैं। इन्हीं तत्त्वों से सभी सम्भावनाओं का उद्घाटन होता है। इस उद्घाटन की सीमा में उच्चता स्पष्ट रूप से हमारे सामने आती है। इस तरह ज्ञाताधर्म के प्रत्येक चरित्र समाजगत और वैयक्तिक गुण प्रकट करने में समर्थ हैं। 2. प्रतिनिधि पात्र वे पात्र जो एक विशिष्ट व्यक्ति के चरित्र को लेकर समाज का प्रतिनिधित्व करते हैं प्रतिनिधि पात्र कहलाते हैं। प्रतिनिधि पात्र के वस्त्र, वेशभूषा, सुन्दर विचार, कोमल परिणाम, समाज उपयोगी मनोभाव एवं उनके सभी प्रयत्न इस बात को पुष्ट करते हैं कि जीवन का मूल्य सत्यार्थ में है और यही सत्यार्थ प्रतिनिधि पात्र के चरित्रों में पाया जाता है। प्रतिनिधि पात्र सुख-दुःख, घृणा-प्रेम, रुचि-अरुचि, 1. पोसहिमस्स वंभचारिस्स उम्भुक्कमणिं- सुवण्णस्स.......। ज्ञाताधर्मकथा 1/66. 2. ज्ञाताधर्मकथांग 5/68. 3. ज्ञाताधर्मकथा 8/82. Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org