Book Title: Gnatadharmkathang ka Sahityik evam Sanskrutik Adhyayan
Author(s): Rajkumari Kothari, Vijay Kumar
Publisher: Parshwanath Vidyapith
View full book text
________________ 66 ज्ञाताधर्मकथांग का साहित्यिक एवं सांस्कृतिक अध्ययन तथा शुक्लध्यान पूर्वक ग्रहण किए हुए व्रतों का पालन करना चाहिए। इस अध्ययन में विविध प्रकार के वृक्षों से वनखण्ड के रमणीय दृश्यों को भी प्रस्तुत किया गया है और आर्त परिणामों के कारण उत्पन्न होने वाले श्वास, कास-खांसी, ज्वर, दाहजलन, कुक्षि-शूल, कूरव का शूल, भगंदर, अर्श-बवासीर, अजीर्ण, नेत्रशूल, मस्तकशूल, भोजन विषयक अरुचि, नेत्रवेदना, कर्णवेदना, कंडू-खाज, दकोदर-जलोदर और कोढ़' रोगों का विवेचन इस बात की प्रामाणिकता को सिद्ध करता है कि जो व्यक्ति जन सेवा, दया, दान, परोपकार आदि से रहित आर्त परिणामों वाला होता है वह इसी भव में विविध रोगों को निमंत्रण देता है। इसी क्रम में चिकित्सा पद्धति, शास्त्रकोष आदि के वैशिष्ट्य को प्रतिपादित किया गया है। रोग का उपसंहनन कैसे हो इसकी समीक्षा भी की गयी है, अत: यह अध्ययन जहाँ जलचर जीव के संरक्षण को महत्त्व देता है वहीं पर मनुष्य के रोगों की शिक्षा एवं उपचार पर भी प्रकाश डालता है। 14. तेतलिपुत्र चौदहवें अध्ययन में तेतलिपुत्र का जीवन वृत्तान्त उल्लेखित है। तेतलिपर के राजा नाम कनकरथ था व उसके मंत्री का नाम तेतलिपुत्र था। तेतलिपुर में ही एक स्वर्णकार रहता था जिसकी पुत्री पोट्टिला थी। तेतलिपुत्र उसे देखकर उस पर अनुरक्त हो गया एवं पत्नी के रूप में उसकी मांग की। स्वर्णकार ने भी सहमति दर्शायी एवं शुभ अवसर पर दोनों का विवाह सम्पन्न हुआ। कुछ समय तक तो दोनों में बहुत प्रेम, स्नेह बना रहा परन्तु किसी कारण से तेतलिपुत्र को पोट्टिला से नफरत हो गयी और वह उससे बोलना बन्द कर दिया। पोट्टिला बहत दु:खी एवं उदास रहने लगी तो एक दिन तेतलिपत्र ने उससे कहातुम मेरी भोजनशाला से अतिथियों, श्रमणों, गरीबों को दान देती हई निश्चिंतता से रहो ताकि तुम्हारा समय आराम से बीते। वह तेतलिपुत्र के निर्देश का पालन करती हुई स्वस्थ रहने लगी। एक दिन पोट्टिला की दानशाला में सुव्रता नामक आर्या अपने शिष्या समुदाय के साथ उपस्थित हई। पोट्टिला ने उन्हें स्नेह आदर से दान देने के उपरान्त अपनी व्यथा कही कि पूर्व में मुझे पति का सुख प्राप्त था अब नहीं। कृपा कर मुझे अपने पति का सूख पुनः प्राप्त करने का कोई उपाय बताइये। 1. सासे कासे जोर दाहे, कुच्छिसूले भगंदरे अरिसा अजीरए दिट्ठि- मुद्धसूले अगारए अच्छिवेयणा कनवेयणा कंडू दउदरे कोठे। ज्ञाताधर्मकथांग 13/21, गाथा 1. Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org