Book Title: Gnatadharmkathang ka Sahityik evam Sanskrutik Adhyayan
Author(s): Rajkumari Kothari, Vijay Kumar
Publisher: Parshwanath Vidyapith
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________________ 64 ज्ञाताधर्मकथांग का साहित्यिक एवं सांस्कृतिक अध्ययन एक दिन राजा जितशत्रु एवं मंत्री सुबुद्धि घूमने शहर के बाहर निकले। नगर के बाहर एक गन्दे पानी की बड़ी खाई थी। राजा ने उस खाई की दुर्गन्ध से नाक बंद कर लिया और उस बदबुदार पानी का वर्णन करने लगे, परन्तु सुबुद्धि इस बार भी वस्तु के स्वरूप के संबंध में कहा तो राजा ने कहा कि सुबुद्धि! तुम्हारा कथन असत्य है, तुम दुराग्रह एवं वैमनस्यता के शिकार हो। सुबुद्धि ने राजा को सन्मार्ग पर लाने का निश्चय किया। एक दिन उसने उसी खाई का पानी मंगाकर विशिष्ट विधियों द्वारा 49 दिनों में अत्यन्त शुद्ध एवं स्वादिष्ट बनाया और उसे राजा के पास भेजा। राजा को पानी बहुत स्वादिष्ट लगा पूछने पर मंत्री ने कहा कि राजन् ये वही खाई का पानी है जिसको देखकर आपने नाक बंद कर दी थी। .. जब राजा ने स्वयं उस विधि से उस पानी को बनाकर देखा तो संबद्धि की मति पर विश्वास हो गया। तत्पश्चात् राजा मंत्री से जिनवाणी श्रवण कर श्रमणोपासक बन गया। यह अध्ययन सत्य और असत्य, इष्ट और अनिष्ट इन दो तथ्यों पर प्रकाश डालता है। साथ ही अणुव्रती को निर्देशित करते हुये कहता है कि जो व्यक्ति श्रावक के गुणों को स्वीकार कर लेता है उसका अंतरंग जीवन पूरी तरह परिवर्तित हो जाता है। 13. द१रज्ञात तेरहवें अध्ययन में आसक्ति को अध:पतन का कारण माना गया है। एक बार भगवान महावीर राजगृह पधारे। वहाँ दर्दुरावतंसक नामक विमान में दर्दुर नामक देव अपने परिवार सहित आये और सूर्याभदेव के समान नाट्यविधि दिखलाकर चले गये। ऐसा देखकर गौतम ने महावीर भगवान से पूछा कि दर्दुरदेव ने वह नृत्य देवऋद्धि कैसे प्राप्त की तथा किस प्रकार उसके समक्ष आई? इस पर भगवान महावीर ने उन्हें सारा वृत्तान्त सुनाया। राजगृह नामक नगर में गुणशील नामक चैत्य था। वहाँ के राजा का नाम श्रेणिक था। वहाँ पर नन्द नामक मणियार रहता था। जब मैं राजगृह गया तो नन्दमणियार भी मेरे दर्शनार्थ गुणशील चैत्य में आया। वहाँ उसने धर्म को सुना और श्रावक धर्म को स्वीकार कर लिया। एक बार ग्रीष्म ऋतु में उसने पौषधशाला में अष्टम भक्त की तपश्चर्या की। इस दौरान वह भूख व प्यास से व्याकुल हो गया और सोचने लगा कि उसे पौषध Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org