Book Title: Gnatadharmkathang ka Sahityik evam Sanskrutik Adhyayan
Author(s): Rajkumari Kothari, Vijay Kumar
Publisher: Parshwanath Vidyapith
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________________ 52 ज्ञाताधर्मकथांग का साहित्यिक एवं सांस्कृतिक अध्ययन 2. संघाट द्वितीय अध्ययन में मन, वचन और काय की एकाग्रता पर विशेष बल दिया गया है। इसमें राजगृह नामक नगर का वर्णन है। इसी नगर में गुणशील नामक चैत्य को नाना प्रकार के वृक्षों, लताओं, बेलों आदि से समृद्ध बताया गया है। राजगृह नगर जो धन-धान्य आदि से सम्पन्न थी। धन्य सार्थवाह इसी नगर का निवासी था। उसकी पत्नी का नाम भद्रा था। राजगृह में विजय नामक चोर रहता था। वह पापी, चाण्डाल, क्रूर स्वभावी, विश्वासघाती एवं सप्त व्यसनों से युक्त था। ___ भद्रा ने देवी-देवताओं की उपासना से पुत्र रत्न की प्राप्ति की। जिसका नाम देवदत्त रखा / वह धीरे-धीरे बड़ा होने लगा। दास-दासियाँ उसे खिलाने लगी। एक पंथक उसे बाहर ले जाकर स्वयं बालकों के साथ खेलने लगा। उसे यह ध्यान नहीं रहा कि जिस पुत्र की मैं रक्षा कर रहा हूँ वह मेरे मालिक का है। इसी बीच विजय चोर उस स्थान पर आया उसने देवदत्त को देखा जो आभूषणों से लदा हुआ था। उसका अपहरण कर लिया। उसकी खोज की गई। परन्तु वह नहीं मिला, क्योंकि उस बालक के वस्त्र आभूषण आदि उतारकर चोर ने उसे कुएँ में डाल दिया था। नगर रक्षकों ने उसकी खोज की। विजय चोर के पैरों के निशानों का अनुसरण करते हुए वे मालुकाकच्छ में पहुंचे जहाँ बालक देवदत्त के आभूषणों को पहचाना गया। विजय चोर को बन्दी बनाकर करागृह में डाल दिया गया। इधर धन्य सार्थवाह राजकीय अपराध में पकड़ लिया गया। विजय चोर और. धन्य सार्थवाह को एक दूसरे से बाँध दिया गया। धन्ना की पत्नी भद्रा भोजन लेकर धन्य सार्थवाह के पास आयी और भोजन देकर घर चली गई। कुछ समयोपरान्त धन्य सार्थवाह मल-मूत्र से पीड़ित हो गया और विजय चोर भूख से व्याकुल। दोनों की गम्भीर स्थिति हो गयी। दया भाव से प्रेरित हो धन्य सार्थवाह अपने पुत्र के घातक को जानते हुए भी भोजन देने के लिए तैयार हो गया। उसने अपने भोजन में से कुछ हिस्सा विजय चोर को दे दिया। यह बात भद्रा को जैसे ही ज्ञात हुई वह अत्यन्त कुपित हो गई। धन्य सार्थवाह को बन्दीगृह से मुक्त कर दिया गया। सभी ने उसका आदर सत्कार किया परन्तु भद्रा खिन्न मन से उसे देखती रही अर्थात् वह पति का न आदर कर सकी और न सत्कार। यह रहस्य धन्य सार्थवाह को ज्ञात हुआ तो उसने कहा कि मैंने जो कुछ भी किया धर्म समझ कर, तप जान कर, उपकार भाव रखकर Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org