Book Title: Gnatadharmkathang ka Sahityik evam Sanskrutik Adhyayan
Author(s): Rajkumari Kothari, Vijay Kumar
Publisher: Parshwanath Vidyapith
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________________ ज्ञाताधर्मकथांग की विषयवस्तु एवं सहचर बनकर ही किया। इसके बिना मैं क्या कर सकता था। इस पर वह प्रसन्न हुई और प्रायश्चित्त कर अपने कार्य में लग गयी। बरे कर्म का फल बरा होता है। अर्थात् जैसी करनी होती है वैसा ही फल व्यक्ति को मिलता है। विजय चोर को अधमगति प्राप्त होती है और धन्य सार्थवाह अपने जीवन को धन्य करता हुआ जिनशासन में रत हो जाता है। उसी के परिणाम स्वरूप वह निर्ग्रन्थ प्रवचन में रुचि करता है और स्वर्ग को प्राप्त होता है। प्रस्तुत अध्ययन में मनोभाव को विशेष रूप से दर्शाया गया है जो व्यक्ति संकल्पशील होता है वह निश्चय ही ज्ञान, दर्शन और चारित्र मार्ग की ओर अग्रसर होता है। ऐसा व्यक्ति ही उपकारी का उपकार करता है और एक-दूसरे में रक्षा भाव को भी उत्पन्न करता है। कर्म परिणाम कृत कार्यों से ही होता है। 3. अडंक तृतीय अध्ययन में श्रद्धा और अश्रद्धा के परिणाम को व्यक्त किया गया है। चम्पानगरी में सुभूमिबाग नामक बगीचा था जो सभी ऋतुओं के पुष्प एवं फूलों से सम्पन्न एवं रमणीय रहता था। उसी के वन भाग में एक मयूरी रहती थी जो समय समय पर अण्डों का प्रसव करती थी। चम्पानगरी में दो सार्थवाह पुत्र प्रीतिपूर्वक रहते थे। उसी नगरी में देवदत्ता नामक गणिका भी निवास करती थी। उसके साथ सार्थवाह पुत्र बगीचे में आते थे और सुखपूर्वक गणिका के साथ विचरण करते थे। देवदत्ता गणिका और दोनों सार्थवाह पुत्र विचरण करते हुये मालुकाकच्छ में गये। वहाँ वृक्ष की डाली पर स्थित मयूरी के अण्डों को देखा। उन्हें देखकर वे दोनों अपने क्रीड़ा करने योग्य जानकर उन्हें घर ले आये। : सागरदत्त का पुत्र मयूरी के अण्डे को देखा और देखकर शंकित हा गया ..कि यह अण्डा निपजेगा कि नहीं? उसके फल की आकांक्षा करने लगा कि कब इससे अभीष्ट फल की प्राप्ति होगी? इन सब विचारों से युक्त मयूरी के अण्डों को वह हिलाने चलाने लगा। तब उसे वह अण्डा खोखला दिखाई पड़ा। वह खिन्न हो गया, सोचने लगा कि मेरे खेलने का प्रयोजन ही निष्फल हो गया। ___ उधर जिनदत्त नामक सार्थवाह पुत्र अण्डे को बढ़ते हुए देखकर प्रसन्न होता है और मयूर संरक्षकों को बुलवाता है। मयूरी के अण्डे फूट पड़ते हैं, चूजे बड़े होते हैं तब वह उन्हें नृत्यकला में प्रवीण कराता है। जब वह कला में प्रवीण हो जाता है तो जिनदत्त अत्यन्त प्रसन्न होता है। चम्पानगरी में उस मयूर शिशु की Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org