Book Title: Gnatadharmkathang ka Sahityik evam Sanskrutik Adhyayan
Author(s): Rajkumari Kothari, Vijay Kumar
Publisher: Parshwanath Vidyapith

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Page 58
________________ प्राकृत कथा साहित्य का उद्भव एवं विकास 45 रत्नशेखर की कथा में किन्नर-मिथुन के वार्तालाप से राजा को पूर्वजन्म की पत्नी रत्नावती का स्मरण हो जाता है।' तरंगवती कथा में भी हंस-मिथुन दर्शन से पूर्वजन्म का ज्ञान होने का वर्णन आया है। इसी प्रकार कुवलयमालाकहा में कुवलयचन्द को अतीत का स्मरण हो आता है और वह उसी आधार पर कुवलय की खोज करता है। 3. भूत और वर्तमान का सम्मिश्रण- प्राय: सभी प्राकृत कथाओं में अतीत और वर्तमान दोनों की घटनायें प्राप्त होती हैं। तरंगवती कथा में उद्यान में विचरण करती हुई नायिका हंस-मिथुन को देखकर अतीत का स्मरण करने लगती है और अपने प्रेमी की तलाश में निकल पड़ती है। महावीर चरित्र में नेमिचन्द्र ने तीनों कालों के संयोग को दिखलाया है। लीलावईकहा में भी लीलावती एवं उसकी सखी भूत एवं वर्तमान के भाव स्मरण को लेकर उनकी (अपने प्रियतम की) खोज में निकल पड़ती है। 4. कथाओं का सम्मिश्रण- प्राकृत साहित्य में उपन्यास की तरह अवान्तर कथाओं का भी सम्मिश्रण है जिनमें वसदेवहिण्डी, समराइच्चकहा, कुवलयमालाकहा, एवं लीलावईकहा आदि कथाओं के नाम उल्लेखनीय हैं। 5. उद्देश्य प्रधानता- प्राकृत कथाएँ निरुद्देश्य या केवल क्षणिक मनोरंजन के लिए नहीं लिखी गयी हैं। इसमें मानव जीवन के विभिन्न दृष्टिकोणों को परखने की चेष्टा की गयी है। साहित्यकार से अगर असावधानी हो जाय तो कथाप्रवाह रुक जाता है अत: लेखक को सावधानी की विशेष आवश्यकता रहती है। इसका सर्वोत्तम उदाहरण कुवलयमाला में देखने को मिलता है जहाँ गरिमामय पदावली एवं अभिन्न वर्णनों का अद्भूत सामञ्जस्य बना है। ..6. व्यंग्य का अनुमिति द्वारा प्रकटीकरण- प्राकृत कथाओं में किसी बात को स्वयं न कहकर व्यंग्य के माध्यम से प्रकट किया गया है। कुवलयमाला में राजा दृढ़वर्मा को महेन्द्र की प्राप्ति पुत्र प्राप्ति का संकेत है। समराइच्चकहा में गुणसेन के महल के नीचे से मुर्दा निकलना वैराग्य प्राप्ति का संकेत है। 7. स्थापत्य कला का प्रयोग- ज्ञाताधर्म की कथाओं में नगर, ग्राम, सरोवर, प्रासाद, ऋतु, वन, पर्वत आदि का विवेचन बहुत ही सुन्दरता से किया गया है। जैसे राजप्रासाद की स्थापत्य कला प्रसिद्ध होती है उसी प्रकार प्राकृत कथाओं 1. रयणसेहरनिवकथा, पृ०-६. 2. तरंगवतीकथा, पृ०-१७-१८, गाथा 58-68. Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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