Book Title: Gnatadharmkathang ka Sahityik evam Sanskrutik Adhyayan
Author(s): Rajkumari Kothari, Vijay Kumar
Publisher: Parshwanath Vidyapith
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________________ 28 ज्ञाताधर्मकथांग का साहित्यिक एवं सांस्कृतिक अध्ययन है जिनका निर्धारण विभिन्न स्त्रोतों से किया जाता है। जहाँ तक ज्ञाताधर्मकथा का प्रश्न है आचार्य श्री तुलसी ने अंगसुत्ताणि, भागः 3 में पाठ निर्धारण में निम्न प्रतियों का प्रयोग किया है। 1. ताडपत्रीय (फोटोप्रिंट) जैसलमेर भण्डार से प्राप्त है, जो सम्भवत: १२वीं शताब्दी की है। 2. ज्ञाताधर्मकथा (पंचपाठी) मूल- वृत्ति सहित जो गधेया पुस्तकालय, सरदारशहर की है, संभवत: १४-१५वीं शताब्दी की है। 3. सरदारशहर से प्राप्त यह जीर्णप्रति है। इस पर प्रतिलेखन काल वि० सं० 1554 अंकित है। 4. यह टब्बा 12 वें अध्ययन से आगे काम में ली गयी है। मधुकर मुनि ने ज्ञाताधर्मकथा में जावपूर्ति में, अंगसुत्ताणि का ही अनुसरण किया है। हमने भी युवाचार्य मधुकर मुनि द्वारा संपादित ज्ञाताधर्मकथांग को ही आधार मानकर कार्य किया है। इस प्रकार विषय विवेचन, भाषा, भाव आदि के कारण इस कथाग्रन्थ को प्राकृत साहित्य का प्राचीनतम कथा ग्रन्थ तो माना ही गया है, परन्तु कथा विकास की दृष्टि से भी इसे यथेष्ट प्राचीन कहा जाता है। ज्ञाताधर्मकथा में जो कथाएँ हैं वे सूत्रात्मक नहीं हैं, अपितु कथन, कथोपकथन, चरित्र चित्रण आदि के साथ-साथ महान उद्देश्य को लिए हुए हैं। इसके हृदय में भारतीय समाज की जीती जागती प्रतिमा है जो सदाचरण, सद्व्यवहार आदि के नैतिक गुणों को उजागर करती है। ज्ञाताधर्म की मूल रचनाओं में यह कहीं भी संकेत नहीं है कि कब और कहाँ तथा कैसे लिखी गयी है। परन्तु यथार्थ इसके प्रारम्भिक विवेचन से हो जाता है जिसमें यह दिया गया है कि जो महावीर ने कहा है वही जम्बूस्वामी ने कहा और उन्हीं के अन्य गणधरों द्वारा जो जैसा कहा गया उसे उसी रूप में व्यक्त किया गया। प्रथम अध्ययन की समाप्ति के पश्चात् द्वितीय अध्ययन में जम्बूस्वामी सुधर्मास्वामी से प्रश्न करते हैं कि भगवन! यदि श्रमण भगवान महावीर ने प्रथम ज्ञात अध्ययन का यह अर्थ किया है तो द्वितीय अध्ययन का क्या अर्थ होगा? ऐसा ही कथन सर्वत्र है। इस तरह के कथन से इसकी प्राचीनता अपने आप ही निश्चित हो जाती है कि जो महावीर के वचन थे वही उनके शिष्यों द्वारा ज्ञाताधर्म में प्रतिपादित किए गये हैं। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org