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धवला उद्धरण
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इन्द्रिय का स्वरूप
अहमिदा जह देवा अविसेसं अहमहं णि मण्णता । ईसंति एक्कमे क्कं इंदा इव इंदिए जाण ।। 85 ।।
जिस प्रकार ग्रैवेयकादि में उत्पन्न हुए अहमिन्द्र देव मैं सेवक हूँ अथवा स्वामी हूँ इत्यादि विशेषाभाव से रहित अपने को मानते हु एक-एक होकर अर्थात् कोई किसी की आज्ञा आदि के पराधीन न होते हुए स्वयं स्वामीपने को प्राप्त होते हैं, उसी प्रकार इन्द्रियाँ भी अपने स्पर्शादिक विषय का ज्ञान उत्पन्न करने में समर्थ हैं और दूसरी इन्द्रियों की अपेक्षा से रहित हैं, अतएव अहमिन्द्रों की तरह इन्द्रियाँ जानना चाहिये।
काय का स्वरूप एवं भेद
अप्पप्पवृत्ति-संचिद-पोग्गल - पिंड वियाण कायो त्ति । सो जिणमदम्हि भणिओ पुढविक्कायादिछब्भेदो ।।86।।
योगरूप आत्मा की प्रवृत्ति से संचय को प्राप्त हुए औदारिकादि रूप पुद्गल पिण्ड को काय समझना चाहिये। वह काय जिनमत में पृथिवीकाय आदि के भेद से छह प्रकार का कहा गया है और वे पृथिवी आदि छह काय, त्रसकाय और स्थावरकाय के भेद से दो प्रकार के होते हैं।।86।।
जह भारवहो पुरिसो वहइ भरं गेण्हिऊण कावोडि । एमेव वहइ जीवो कम्भ-भरं काय- कावोडि।।87।।
जिस प्रकार भार को ढोने वाला पुरुष कावड़ को लेकर भार को ढोता है, उसी प्रकार यह जीव शरीररूपी कावड़ को लेकर कर्मरूपी भार को ढोता है। 187 ।।