________________
धवला उद्धरण
256
संक्रम का स्वरूप एवं भेद उल्लेवण विज्झादो अधापमत्तो गुणो य सव्वो य। संकमइ जेहि कम्म परिणामवसेण जीवाणं।।1।।
परिणामवश जिनके द्वारा जीवों का कर्म संक्रमण को प्राप्त होता है वे संक्रम पाँच हैं- उद्वेलनसंक्रम, विध्यातसंक्रम, अधातप्रवत्तसंक्रम, गुणसंक्रम और सर्वसंक्रम।।1।।
गुणस्थानों की अपेक्षा संक्रम बंधे अधापमत्तो विज्झाद अबंध अप्पमत्तंतो। गुणसंकमो दु एत्तो पयडीणं अप्पसत्थाणं।।2।।
बन्ध के होने पर अधः प्रवृत्तिसंक्रम होता है। विध्यातसंक्रम अबन्ध अवस्था में अप्रमत्त गणस्थान पर्यन्त होता है। यहाँ से अर्थात अप्रमत्त गुणस्थान से आगे के गुणस्थानों में बन्ध रहित अप्रशस्त प्रकृतियों का गुणसंक्रम और सर्वसंक्रम भी होता है।।2।।
प्रकृतियों के भागहार उगुदाल तीस सत्त य वीसं एगेग बार तियचउक्कं। एवं चदु दुग तिय चदु पण दुग तिग दुगं च बोद्धव्व।।3।।
उनतालीस.तीस.सात.बीस.एक. एक.बारह और तीन चतष्क (4. 4,4) इन प्रकृतियों के क्रम से एक, चार, दो, तीन, तीन, चार, पाँच, दो, तीन और दो ये भागहार जानने चाहिये।।3।।