Book Title: Dhavala Uddharan
Author(s): Jaikumar Jain
Publisher: Veer Seva Mandir

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Page 259
________________ धवला उद्धरण 254 निधत्ति और निकाचित कर्म उदए संकम-उदए चदुसु वि दाएं कमेण णो सक्कं। उवसंतं च णिधत्तं णिकाचिदं चावि जं कम्म।।4।। जो कर्म उदय में नहीं दिया जा सकता है वह उपशान्त, जो संक्रमण व उदय दोनों में नहीं दिया जा सकता है वह निधत्त तथा जो चारों (उदय, संक्रमण, अपकर्षण व उत्कर्षण) में भी नहीं दिया जा सकता है वह निकाचित कहा जाता है।।4।। गुणश्रेणि निर्जरा सम्मत्तुप्पत्तीए सावय विरदे अणंतकम्मसे। दंसणमोहक्खवए कसायउवसामए य उवसंते।।1।। खवए य खीणमोहे जिणे य णियमा भवे असंखेज्जा। तव्विवरीओ कालो संखेज्जगुणाए सेडीए।।2।। सम्यक्त्वोत्पत्ति, श्रावक, विरत (संयत), अनन्तकर्मांश (अनन्तानुबन्धिविसंयोजक), दर्शनमोहक्षपक, कषायोपशामक, उपशान्तकषाय, क्षपक, क्षीणमोह और जिन, इनके क्रमशः उत्तरोत्तर असंख्यातगुणी निर्जरा होती है, किन्तु इस निर्जरा का काल संख्यातगुणित श्रेणि रूप से विपरीत है। जैसे- जिनभगवान् की गुणश्रेणि निर्जरा का जितना काल है उससे क्षीणकषाय की गुणश्रेणि निर्जरा का काल संख्यातगुणा है इत्यादि।।1-2।।

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