Book Title: Dhavala Uddharan
Author(s): Jaikumar Jain
Publisher: Veer Seva Mandir

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Page 257
________________ धवला उद्धरण 252 कम्म ण होदि एयं अणेयविहमेय बंधसमकाले। मूलुत्तरपयडीणं परिणामवसेण जीवाण।।17।। कर्म एक नहीं है, वह जीवों के परिणामानुसार मूल व उत्तर प्रकतियों के बन्ध के समान काल में ही अनेक प्रकार का है।।17।। राग-द्वेषायूष्मा स योग-वात्मदीप आवर्ते। स्कन्धानादाय पुनः परिणमयति तांश्च कर्मतया।।18।। संसार में राग-द्वेषरूपी उष्णता से संयुक्त वह आत्मारूपी दीपक योगरूप बत्ती के द्वारा कार्मण वर्गणा के स्कन्धों को ग्रहण करके फिर उन्हें कर्मस्वरूप से परिणमाता है।।18।। एयक्खोत्तो गाढं सव्वपदेसेहि कम्मणो जोग्गं। बंधइ जहुत्तहेऊ सादियमहणादियं वा वि।।19।। जीव एकक्षेत्र में अवगाह को प्राप्त हुए तथा कर्म के योग्य सादि, अनादि अथवा उभय स्वरूप पुद्गल प्रदेश समूह को यथोक्त हेतुओं (मिथ्यात्व आदि) द्वारा अपने सब प्रदेशों से बंधता है।।19।। कर्म के प्रदेशों की हीनाधिकता आउअभागो थोवो णामा-गोदे समो तदो अहिओ। आवरण-अंतराए तुल्लो अहिओ दु मोहे वि।।20।। सव्वुवरि वेदणीए भागो अहिओ दु कारणं किंतु। सुह-दुक्खकारण त्ता ठिदियविसेसेण सेसाणं।।21।। आयु कर्म का भाग सबसे स्तोक है। नाम व गोत्र कर्म में वह समान हो करके उससे अधिक है। आवरण अर्थात् ज्ञानावरण व दर्शनावरण तथा अन्तराय में वह समान होकर उक्त दोनों कर्मों की अपेक्षा विशेष अधिक है। मोहनीय में उनसे विशेष अधिक है, किन्तु वेदनीय कर्म का द्रव्य सर्वोत्कृष्ट हो करके मोहनीय की अपेक्षा विशेष अधिक है। इसका

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