________________
धवला उद्धरण
184
तिलपलल-पृथुक-लाजा-पूपादिस्नग्धसुरभिगंधेषु। भुक्तेषु भोजनेषु च दावाग्निधूमे च नाध्येम्।।93।।
तिलमोदक, चिउड़ा, लाई और पुआ आदि चिक्कण एवं सुगन्धित भोजनों के खाने पर तथा दावानल का धुआं होने पर अध्ययन नहीं करना चाहिये।।93।। योजनमण्डलमात्रे संन्यासविधी महोपवासे च। आवश्यकक्रियायां केशेषु च लुच्यमानेषु ।।94।। सप्तदिनान्यध्ययन प्रतिषिद्धं स्वर्गगते श्रमणसूरो। योजनमात्रे दिवसत्रितयं त्वतिदरतो दिवसम।।95।।
एक योजन के घेरे में संन्यासविधि, महोपवासविधि, आवश्यक क्रिया एवं केशों का लोंच होने पर तथा आचार्य का स्वर्गवास होने पर सात दिन तक अध्ययन का प्रतिषेध है। उक्त घटनाओं के योजन मात्र में होने पर तीन दिन तक तथा अत्यन्त दूर होने पर एक दिन तक अध्ययन निषिद्ध है।।94-95।। प्राणिनि च तीव्रदुःखान्प्रियमाणे स्फुरति चातिवेदनया। एकनिवर्तनमात्रे तिर्यक्षु चरत्सु च न पाठयम्।।96।।
प्राणी के तीव्र दुःख से मरणासन्न होने पर या अत्यन्त वेदना से तड़फड़ाने पर तथा एक निर्वतन (एक बीघा या गुंठा) मात्र में तिर्यंचों का संचार होने पर अध्ययन नहीं करना चाहिये।।96।। तावन्मात्रे स्थावरकायक्षयकर्मणि प्रवृत्ते च। क्षेत्राशुद्धो दूराद् दुग्गंधे वातिकुणपे वा।।97।। विगतार्थागमने वा स्वशरीरे शुद्धिवृत्तिविरहे वा। नाध्येयः सिद्धान्तः शिवसुखफलमिच्छता वतिना।।98।। उतने मात्र में स्थावरकाय जीवों के घात रूप कार्य में प्रवृत्त होने