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धवला पुस्तक 13
213 वह निर्जरित होकर भी निर्जरित नहीं है और उदीरत होकर भी अनुदीरित है। इस प्रकार यह ईर्यापथ कर्म का लक्षण है।।4।।
वीतराग सुख की विशेषता जं च कामसुहं लोए जं च दिव्वं महासह। वीयरायसुहस्सेदं पंतभागं ण अग्घदे।।5।।
लोक में जो काम सुख है और जो दिव्य महासुख है, वह वीतराग सुख के अनन्तवे भाग के योग्य भी नहीं है।।5।।
उपवास का स्वरूप अप्रवत्तस्य दोषेभ्यस्सहवासो गुणः सह। उपवासस्य विज्ञेयो न शरीरविशोषणाम्।।6।।
उपवास में प्रवृत्ति नहीं करने वाले जीव को अनेक दोष प्राप्त होते हैं और उपवास करने वाले को अनेक गुण, ऐसा यहाँ जानना चाहिये। शरीर के शोषण करने को उपवास नहीं कहते।।6।।
आहार का परिमाण बत्तीसं किर कवला आहारो कृच्छिपूरणो भणिदो। पुरिसस्स महिलियाए अट्ठावीसं हवे कवला।।7।।
उदरपूर्ति के निमित्त पुरुष का बत्तीस ग्रास और महिला का अट्ठाईस ग्रास आहार कहा है।।7।। बाह्यं तपः परमदुरचरमाचरस्त्वमाध्यात्मिकस्य तपसः परिबृंहणार्थम्। ध्यानं निरस्य कलुषद्वयमुत्तरस्मिन् ध्यानद्वये ववृतिषेऽतिशयोपपन्ने।।8
(हे कुन्थु जिनेन्द्र!) आपने आध्यात्मिक तप को बढ़ाने के लिये दुश्चर बाह्य तप का आचरण किया और प्रारम्भ के दो मलिन ध्यानों को छोड़कर अतिशय को प्राप्त उत्तर के दो ध्यानों में प्रवृत्ति की।।8।।