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धवला उद्धरण
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वितर्क का स्वरूप जम्हा सुदं विदक्कं जम्हा पुव्वगयअत्थकुसलो य। ज्झायादि झाणं एदं सविदक्कं तेण तज्झाणं।।62।।
यतः वितर्क का अर्थ श्रुत है और जिसलिये पूर्वगत अर्थ में कुशल साधु इस ध्यान को ध्याता है, इसलिये इस ध्यान को सवितर्क कहा है।।62॥
अवीचार का स्वरूप अत्थाण वंजणाण य जोगाय य संकमो हु वीचारो। तस्स अभावेण तगं ज्झाणमवीचारमिदि वुत्तं।।63।।
अर्थ, व्यंजन और योगों के संक्रम का नाम वीचार है। यतः उस वीचार के अभाव से यह ध्यान होता है, इसलिये इसे अवीचार कहा है।।63।।
शुक्लध्यान के आलम्बन अह खंति-मद्दवज्जव-मुत्तीओ जिणमदप्पहाणाओ। आलंबणेहि जेहिं सुक्कज्झाणं समारुहइ।।64।।
इस विषय में गाथा, क्षमा, मार्दव, आर्जव और संतोष ये जिनमत में ध्यान के प्रधान आलम्बन कहे गये हैं, जिन आलम्बनों का सहारा लेकर साधु शुक्ल ध्यान पर आरोहण करते हैं।।64।।
शुक्ल ध्यान की विशेषता जह चिरसंचियमिंधणमणलो पवणुग्गदो धुवं दहइ। तह कम्मिंधणमियं खणेण झाणाणलो दहइ।।65।।
जिस प्रकार चिरकाल से संचित हुए ईंधन को वायु से वृद्धि को प्राप्त हुई अग्नि अतिशीघ्र जला देती है, उसी प्रकार अपरिमित कर्मरूपी ईंधन को ध्यानरूपी अग्नि क्षणमात्र में जला देती है।।65।।