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धवला उद्धरण
248 यदि सत्सर्वथा कार्य पुवन्नोत्पत्तुमर्हति। परिणामप्र क्लृप्तिश्च नित्यत्वेकान्तबाधिनी।।3।।
यदि कार्य सर्वथा सत् है तो वह पुरुष के समान उत्पन्न नहीं हो सकता और परिणाम की कल्पना नित्यस्वरूप एकान्त पक्ष की विघातक है।।3।। पुण्यपापक्रिया न स्यात् प्रेत्यभावः फलं कुतः। बन्धमोक्षो च तेषां न येषां त्वं नासि नायकः।।4।।
इसके अतिरिक्त सर्वथा नित्यत्व की प्रतिज्ञा में मन, वचन व काय की शुभ प्रवृत्तिरूप पुण्य क्रिया तथा उनकी अशुभ प्रवृत्तिरूप पाप क्रिया भी नहीं बन सकती। अतएव पुण्य व पाप का अभाव होने पर जन्मान्तर प्राप्तिरूप प्रेत्यभाव तथा सुख व दुःख के अनुभवरूप पुण्य एवं पाप का फल भी कहां से होगा? नहीं हो सकेगा। इसलिये हे भगवन्! जिन एकान्तवादियों के आप नेता नहीं हैं उनके मत में बन्ध व मोक्ष की व्यवस्था भी नहीं बन सकती।।4।।।
यद्यसत्सर्वथा कार्य तन्माजनि खापुष्पवत्। मोपादाननियामो भून्माश्वासः कार्यजन्मनि।।5।।
यदि कार्य सर्वथा (पर्याय के समान द्रव्य से भी) असत् है तो वह आकाश कुसुम के समान उत्पन्न नहीं हो सकता। इसके अतिरिक्त वैसे अवस्था में घट का उपादान मिट्टी है, तन्तु नहीं है, इस प्रकार उपादान नियम भी नहीं बन सकेगा। इसीलिये अमुक कार्य अमुक कारण से उत्पन्न होता है, अमुक से नहीं, इस प्रकार का कोई भी आश्वासन कार्य की उत्पत्ति में नहीं हो सकता।।5।। जातिरेव हि भवानां निरोधे हेतु रिष्यते। यो जातश्च न च ध्वस्तो नश्येत् पश्चात् स केन वः।।6।।