________________
धवला उद्धरण
218
ध्यान की विशेषता णवकम्माणादाणं पोराणवि णिज्जरा सुहादाणं। चारित्तभावणाए ज्झाणमयत्तेण य समेइ।।26।।
चारित्र भावना के बलसे जो ध्यान में लीन है, उसके नूतन कर्मों का ग्रहण नहीं होता, पुराने कर्मों की निर्जरा होती है और शुभ कर्मों का आस्रव होता है।।26।।
सुविदियजयस्सहावो णिस्संगो णिब्भवो णिरासो य। वेरग्गभावियमणो ज्झाणम्मि सुणिच्चलो होइ।।27।।
जिसने जगत् के स्वभाव को जान लिया है, जो निःसंग है, निर्भय है, सब प्रकार की आशाओं से रहित है और वैराग्य की भावना से जिसका मन ओतप्रोत है वही ध्यान में निश्चल होता है।।27।। किंचिट्ठिदिमुपावत्तइत्तु ज्झे ये णिरुद्धदिट्ठीओ। अप्पाणम्मि सदिं संधित्तु संसारमोक्खळें।।28।। जिसकी दृष्टि ध्येय में रुकी हुई है वह बाह्य विषय से अपनी दृष्टि को कुछ क्षण के लिए हटाकर संसार से मुक्त होने के लिए अपनी स्मृति को अपने आत्मा में लगावे।।28।। पच्चाहरित्तु विसएहि इंदियाई मणं च तेहिंतो। अप्पाणम्मि मणं तं जोग पणिधाय धारेदि।।29।।
इन्द्रियो को विषयों से हटाकर और मन को भी विषयों से दूरकर समाधि पूर्वक उस मन को अपने आत्मा में लगावे।।29।।
सिद्धों के गुण द्रव्यतः क्षेत्रतश्चैव कालतो भावतस्तथा। सिद्धाष्टगुणसंयुक्ता गुणाः द्वादशधा स्मृताः।।30।।