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धवला उद्धरण
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दस चोद्दस अट्ठट्ठारस बारस य दोसु पुव्वेसु। सोल वीसं तीसं दसमम्मि य पण्णरस वत्थू।।84।। एदेसिं पुव्वाणं एवदिओ वत्थुसंगहो भणिदो। सेसाणं पुव्वाणं दस दस वत्थू पणिवयामि।।85।।
दश, चौदह, आठ, अठारह, दो पूर्वो में बारह, सोलह, बीस, तीस और दशवें में पन्द्रह, इस प्रकार क्रम से आदि के इन दश पूर्वो की इतनी मात्र वस्तुओं का संग्रह कहा गया है। शेष चार पूर्वो के दश-दश वस्तु हैं। इनको मैं नमस्कार करता हूँ।।84-85।।
एक्केक्कम्हि य वत्थू वीसं वीसं च पाहुडा भणिदा। विसम-समा हि य वत्थू सव्वे पुण पाहुडेहि समा।।86।।
एक-एक वस्त में बीस-बीस प्राभत कहे गये हैं। पर्यों में वस्तएँ सम व विसम हैं, किन्तु वे सब वस्तुएँ प्रभृतों की अपेक्षा सम हैं।।86।।
उपशान्त, निधत्ति और निकचित का स्वरूप उदए संकम-उदए चदुसु वि दाएं कमेण णो सक्क। उवसंतं च णिधत्तं णिकाचिंद चावि जं कम्म।।87||
जो कर्म उदय में नहीं दिया जा सके वह उपशान्त कहलाता है। जो कर्म संक्रमण व उदय में नहीं दिया जा सके उसे निधत्त कहते हैं। जो कर्म उदय, संक्रमण, उत्कर्षण व अपकर्षण, इन चारों में ही नहीं दिया जा सकता है वह निकाचित कहा जाता है।।87।।
इति शब्द के अर्थ हे तावे वंप्रकारादो व्यवच्छेदे विप्र्यये। प्रादुर्भावे समाप्तौ च इति-शब्दः प्रकीर्तितः।।88।।
हेतु, एवं, प्रकार, आदि, व्यवच्छेद, विपयर्यय, प्रादुर्भाव और समाप्ति, इन अर्थों में इति शब्द कहा गया है।।86।। ऐसा वचन है।