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धवला पुस्तक 12
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बारस पण दस पण दस पंचेक्कारस य सत्त सत्त णव । दुविहणयगहणलीणा पुच्छासुत्तकसंदिट्ठी ।।1।। बारह, पाँच, दस, पाँच, दस, पाँच स्थानों में ग्यारह, सात, सात और नौ, इस प्रकार दोनों नयों की अपेक्षा यह पृच्छासूत्रों के अंकों की संदृष्टि है।।1।।
एकोत्तरपदवृद्धो रूपाद्यैर्भाजितश्च पदवृद्धः । गच्छत्सं'पातफलं समाहतस्सन्निपातफलम् ।।2।।
एक-एक अधिक होकर पद प्रमाण वृद्धिंगत गच्छ को पद प्रमाण वृद्धि को प्राप्त हुए एक आदि अंकों से भाजित करने पर संपातफल अर्थात् एक संयोगी भंगों का प्रमाण आता है। इनको परस्पर गुणित करने से सन्निपातफल अर्थात् द्विसंयोगी आदि भंग आते हैं।।।2।।
पण्णवणिज्जा भावा अनंतभागो दु अणभिलप्पाणं । पण्णवणिज्जाणं पुण अनंतभागो सुदणिबद्धो ॥3 ॥
वचन के अगोचर अर्थात् केवल केवलज्ञान के विषयभूत जीवादिक पदार्थों के अनन्तवें भाग मात्र प्रज्ञापनीय अर्थात् तीर्थंकर की सातिशय दिव्यध्वनि के द्वारा प्रतिपादन के योग्य हैं तथा प्रतिपादन के योग्य उक्त जीवादिक पदार्थों का अनतवाँ भाग मात्र श्रुतनिबद्ध है । 3 ॥
आचार्य: पादमाचष्टे पादः शिष्य स्वमेधया । तद्विद्यसेवया पादः पादः कालेन पच्यते ।।4।। आचार्य एक पाद को कहते हैं, एक पाद को शिष्य अपनी बुद्धि से