________________
धवला पुस्तक 4
117 चक्षुरिन्द्रिय सम्बन्धी अवग्रह ज्ञान का जघन्य काल विशेष अधिक है। इससे श्रोत्रेन्द्रियजनित अवग्रह ज्ञान, इससे मनोयोग, इससे वचनयोग, इससे काययोग, इससे स्पर्शनेन्द्रियजनित अवग्रह ज्ञान, इससे अवायज्ञान, इससे ईहाज्ञान, इससे श्रुतज्ञान और इससे उच्छ्वास, इन सबका जघन्य काल क्रमशः उत्तरोत्तर विशेष-विशेष अधिक है।।36।।
केवलदसण-णाणे कसायसुक्के क्कए पुधत्ते य। पडिवादु वसामें तय खावें तए संपराए य।।37।।
तद्भवस्थ केवली के केवलज्ञान और केवलदर्शन तथा सकषाय जीव के शक्ल लेश्या, इन तीनों का जघन्यकाल (परस्पर सदश होते हए भी) उच्छ्वास के काल से विशेष अधिक है। इससे एकत्ववितर्क अवीचार शुक्लध्यान, इससे पृथक्त्ववितर्क वीचार शुक्लध्यान, इससे उपशमश्रेणी से गिरने वाले सूक्ष्मसाम्पराय संयत, इन सबका जघन्य काल क्रमशः उत्तरोत्तर विशेष-विशेष अधिक है।।।37।। माणद्धा को धद्धा मायद्धा तह चेव लो भद्धा। खुद्दभवग्गहणं पुण किट्टीकरणं च बोद्धव्वं ।।38।।
क्षपक सूक्ष्मसाम्पराय के जघन्य काल से मान कषाय, इससे क्रोध कषाय, इससे माया कषाय, इससे लोभ कषाय और इससे लब्ध्यपर्याप्त जीव के क्षुद्रभव ग्रहण का जघन्य काल क्रमशः उत्तरोत्तर विशेष-विशेष अधिक है। क्षुदभव ग्रहण के जघन्य काल से कृष्टीकरण का जघन्य काल विशेष अधिक है, ऐसा जानना चाहिए।।38।। गुण-जोगपरावत्ती वाघादो मरणामिदि हु चत्तारि। जोगेसु होंति ण वरं पच्छिल्लदुगुणका जोगे।।39।।
गुणस्थान परिवर्तन, योग परिवर्तन, व्याघात और मरण, ये चारों बातें योगों में अर्थात् तीनों योगों के होने पर होती हैं, किन्तु सयोगि केवली के पिछले दो अर्थात् मरण और व्याघात तथा गुणस्थान परिवर्तन नहीं होते