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धवला पुस्तक 6
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सिद्धों का लक्षण
असरीरा जीवघणा उवजुत्ता दंसणे य णाणे य। सायारमणायारं लक्खणमेयं तु सिद्धाणं ।।2।। जो अशरीर हैं, जो जीव होकर प्रदेशों की अपेक्षा घनरूप हैं, ज्ञान और दर्शन में उपयुक्त हैं, वे सिद्ध हैं। इस प्रकार साकार और अनाकार, यह सिद्धों का लक्षण है ||2||
जीव की विशेषता
जीवपरिणामहेदू कम्मत्तं पोग्गला परिणमति । ण य णाणपरिणदो पुण जीवो कम्मं समादियादि ।। 3 ।। जीव के रागादि परिणामों के निमित्त से पुद्गल कर्मरूप परिणत होते हैं, किन्तु ज्ञान परिणत जीव कर्म को नहीं प्राप्त होता है || 3 |
कर्मबन्ध की विशेषता
जारिसओ परिणामो तारिसओ चेव कम्मबंधो वि। वत्थूसु विसम - समसण्णिदेसु अज्झप्पजोएण ||4||
विषम और सम संज्ञा वाली अर्थात् अनिष्ट और इष्ट वस्तुओं में आत्मसम्बन्धी अध्यात्मयोग से मिथ्यात्व आदि के निमित्त से जिस प्रकार का परिणाम होता है, कर्म-बन्ध उसी प्रकार का होता है ॥4॥