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धवला उद्धरण
66 एक निगोद शरीर में जीवों की संख्या एय-णिगोद-सरीरे जवा दव्व-प्पमाणदो दिट्ठा। सिद्धहि अणंत-गुणा सव्वेण वितीद-कालेण।।210।।
द्रव्य प्रमाण की अपेक्षा सिद्धराशि से और संपूर्ण अतीत काल से अनन्तगुणे जीव एक निगोद शरीर में देखे गये हैं।।210।।
भव्य एवं अभव्य जीव भविया सिद्धी जेसिं जीवाणं ते भवति भव-सिद्धा। तव्विवरीदाभव्वा संसारादो ण सिज्झंति।।211।।
जिन जीवों की अनन्त चतुष्टयरूप सिद्धि होने वाली हो अथवा जो उसकी प्राप्ति के योग्य हों, उन्हें भव्यसिद्ध कहते हैं और इनसे विपरीत अभव्य होते हैं। ये संसार से निकलकर कभी भी मुक्ति को प्राप्त नहीं होते हैं।211॥
सम्यक्त्व का स्वरूप छप्पंच-णव-विहाणं अत्थाणं जिणवरोवइट्ठाणं। आणाए अहिगमेण व सद्दहणं होइ सम्मत्त।।212।।
जिनेन्द्रदेव के द्वारा उपदिष्ट छह द्रव्य, पाँच अस्तिकाय और नव पदार्थों का आज्ञा अथवा अधिगम से श्रद्धान करने को सम्यक्त्व कहते हैं।।212॥
क्षायिक सम्यक्त्व खीणे दंसण-मोहे जं सद्दहणं सुणिम्मलं होई। तं खाइय-सम्मत्तं णिच्चं कम्म-क्खवण-हेऊ।।213।।
दर्शन मोहनीय कर्म के सर्वथा क्षय हो जाने पर जो निर्मल श्रद्धान होता है, वह क्षायिक सम्यक्त्व है। जो नित्य है और कर्मों के क्षपण का कारण