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धवला पुस्तक4
101 आकाश सप्रदेशी है और वह ऊपर, नीचे और तिरछे सर्वत्र व्याप्त है। उसे ही क्षेत्रलोक जानना चाहिए। उसे जिन भगवान् ने अनन्त कहा है।।4।।
मान के प्रकार पल्लो सायर सूई पदरो य घणांगुलो य जगसेढी। लोयपदरो य लोगो अट्ठ दु माणा मुणेयव्वो।।5।।
पल्योपम, सागरोपम, सूच्यंगुल, प्रतरांगुल, घनांगुल, जगत्श्रेणी, लोकप्रतर ओर लोक ये आठ मान जानना चाहिए।।5।।
लोक का आकार हेट्ठा मज्झे उवरिं वेत्तासण-झल्लरी-मुइंगणिहो। मज्झिमवित्थारेण य चोदसगुणमायदो लोगो।।6।। नीचे वेत्रासन (वेंत के मुंढा) के समान, मध्य में झल्लरी के समान और ऊपर मृदंग के समान आकार वाला तथा मध्यम विस्तार से अर्थात् एक राजु से चौदह गुणा आयत (लम्बा) लोक है।।6।।
लोगो अकट्टिमो खलु अणाइणिहणो सहावणिव्वत्तो। जीवाजीवेहि फुडो णिच्चो तलरुक्खसंठाणो।।7।।
यह लोक निश्चयतः अकृत्रिम है, अनादि-निधन है, स्वभाव से निर्मित्त है, जीव और अजीव द्रव्यों से व्याप्त है, नित्य है तथा तालवृक्ष के आकार वाला है।।7।। लोयस्स य विक्खंभो चउप्पयारो य होइ णायव्वो। सत्तेक्कगो य पंचेक्कगो य रज्जू मुणेयव्वा।।8।।
लोक का विष्कम्भ (विस्तार) चार प्रकार का है ऐसा जानना चाहिए। जिसमें से अधोलोक के अन्त में सात राजु, मध्यलोक के पास एक राजु, ब्रह्मलोक के पास पाँच राजु और ऊर्ध्वलोक के अन्त में एक राजु विस्तार