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धवला पुस्तक 1
61 अशुभ मोहनीय कर्म के उपशान्त अथवा क्षय हो जाने पर ग्यारहवें, बारहवें गुणस्थानवर्ती छद्मस्थ और तेरहवें, चौदहवें गुणस्थानवर्ती जिन यथाख्यातशुद्धि संयत होते हैं।।191।।
देशविरत जीव पंच-ति-चउव्विहेहि अणु-गुण-सिक्खा-वएहि संजुत्ता। वुति देस-विरया सम्माइट्ठी ज्झारिय-कम्मा।।192।।
जो पाँच अणुव्रत, तीन गुणव्रत और चार शिक्षाव्रतों से संयुक्त होते हुए असंख्यातगुणी कर्म निर्जरा करते हैं, ऐसे सम्यग्दृष्टि जीव देशविरत कहे जाते हैं।।192॥
देशविरत के भेद दंसण-वय-सामाइय-पोसह-सचित्त-राइभत्ते य। बम्हारंभ-परिग्गह-अणुमण-उद्दिट्ठ देसविरदेदे।।193।।
दार्शनिक, व्रतिक, सामायिकी, प्रोषधोपवासी, सचित्तविरत, रात्रिभुक्तविरत, ब्रह्मचारी, आरम्भविरत, परिग्रहविरत, अनुमतिविरत और उद्दिष्टविरत ये देशविरत के ग्यारह भेद हैं।।193।।
असंयत का स्वरूप जीवा चोइस-भेया इंदिय-विसया तहट्ठवीसं तु। जे तेसु णेव विरदा असंजदा ते मुणेयव्वा।।194।।
जीवसमास चौदह प्रकार के होते हैं और इन्द्रिय तथा मन के विषय अट्ठाईस प्रकार के होते हैं। जो जीव इनसे विरत नहीं हैं, उन्हें असंयत जानना चाहिये।।194॥