________________ 42 प्रस्तावना खण्डन करने के प्रसंग में दिग्नाग के वाक्यों को न लेकर धर्मकीर्ति के हीवा क्यों का , खण्डन शुरू कर दिया और दिग्नाग के स्थान में सर्वत्र धर्मकीर्ति का ही नाम लिया जाने लगा। अतएव यह कहा जा सकता है धर्मकीर्ति से दिग्नाग की परंपरा नये रूप में अवतीर्ण हई। इन धर्मकीति की परंपरा को भी उनकी शिष्य-परंपरामें होने वाले देवेन्द्रबुद्धि, शान्तभद्र, विनीतदेव, धर्माकरदत्त ( अर्चट ), धर्मोत्तर, प्रज्ञाकर आदिने पुष्ट किया और उसका विकास उत्तरोत्तर बढ़ता ही गया। भारत में मुसलमानी आक्रमणों से जब बौद्ध विहारों का लोप हुआ तब बौद्ध प्रमाणशास्त्र का विकास भारत में रुक गया, किन्तु वह तिब्बत में और चीन देश में हुआ। बौद्धों के प्रमाण-शास्त्र के इस विकास के साथ साथ बौद्धतरों में भी स्वतंत्र प्रमाणशास्त्र का विकास होना अनिवार्य था। मीमांसा जैसे दर्शनों में जहां प्रमाण की चर्चा सर्वथा गौण थी वहाँ भी-कुमारिल ने श्लोकवार्तिक लिख कर और प्रभाकर ने बृहती लिख कर प्रमाणविद्या को मीमांसक दृष्टि से प्रतिष्ठित किया। नैयायिकों में भी केवल प्रमाण की चर्चा करने वाले न्यायसारादि ग्रन्थ बने और गंगेश की तत्त्वचिन्तामणि ने प्रमाणशास्त्र को जो प्रगति दी उसके फलस्वरूप नव्यन्याय का उत्तरोत्तर विकास हुआ जो आज तक हो रहा है। वेदान्त में भी प्रमाणशास्त्र की दृष्टि से वेदान्तपरिभाषा जैसे ग्रन्थ बने। जैनों ने तो जब से दार्शनिकों के अखाड़े में प्रवेश किया है तब से दार्शनिक क्षेत्र में प्रमाणशास्त्र के विषय में ही अधिक लिखा है। सिद्धसेन का न्यायावतार, अकलंक के न्यायविनिश्चय आदि ग्रन्थ, विद्यानन्द की प्रमाणपरीक्षा, माणिक्यनंदी का परीक्षामुख, यशोविजयको तर्कभाषा आदि ग्रन्थ इसके साक्षी हैं। प्रमाणशास्त्रके इस विकासके कारण जात्युत्तर और निग्रहस्थानके विचारका जो प्राधान्य प्राचीन तर्कशास्त्र में वृष्टिगोचर होता था वह मध्यकालीन प्रमाणविचारके प्राधान्यके कारण सर्वथा गौण हो गया। इतना ही नहीं, जात्युत्तरकी प्रक्रिया ही हीन मानी जाने लगी। धर्मकीतिने तो वादन्याय ग्रन्थ लिखकर जाति और निग्रहस्थानोंकी समालोचना की, उनके भेदोपभेदों में असंगति दिखाई और सर्वथा अव्यवहार्यता भी प्रतिपादित की। अपने न्यायबिन्दु ग्रन्थ में तो जात्युत्तरके लिये एक वाक्य ही लिखा और वह भी यह बताने के लिए कि जात्युत्तर दूषण नहीं, दूषणाभास है। प्रमाणशास्त्रमें जब स्वार्थ और परार्थ अनुमान के स्वरूप का सुस्पष्ट निरूपण हो जाय तब जात्युत्तरोंकी परीक्षा सहज हो जाती है और उनकी व्यर्थता और असामर्थ्य भी स्वतः प्रकट हो जाते हैं। परिणामस्वरूप प्रमाणशास्त्र में जात्युत्तर का विचार सर्वथा गौण हो जाय यह स्वाभाविक है। प्राचीन और मध्यकालीन न्यायशास्त्र का मुख्य भेद भी यही है कि प्राचीन काल में जहाँ जाति और निग्रहस्थान का विचार ही मुख्य था वहाँ मध्यकाल में वह गौण हो गया और उसका स्थान प्रमाणने और उसमें भी अनुमान ने ले लिया। मध्ययुगीन समग्र बौद्धसाहित्य की विशेषता भी यही है कि उस काल में आध्यात्मिक - विद्या-निर्वाणमार्ग के विषय में उतने प्रौढ़ ग्रन्थ लिखे नहीं गए जितने प्रमाणशास्त्रके विषय