________________ प्रस्तावना प्रमाणसमुच्चय में स्पष्ट कहा है कि प्रमाणसमुच्चय की रचना का प्रयोजन यह है कि प्रमाण और प्रमेय का सुविशद निरूपण करना जिससे तैर्थिकों के मतों का मिथ्यात्व स्वतः सिद्ध हो जाय। इसका यह दावा नहीं कि तर्कशास्त्र के अध्ययनमात्र से तैथिक लोग अपना मत छोड़कर बौद्धधर्म स्वीकृत कर लेंगे। क्योंकि बौद्धदर्शन में प्रतिपादित परम सिद्धांत ऐसा नहीं, जो तर्क का विषय बन सके। तर्क का अध्ययन केवल मिथ्यात्व को हटाने में सहायक होता है जिससे बौद्धसिद्धान्त के अध्ययन का मार्ग सरल होता है। जो लोग केवल तर्क के सहारे जिज्ञासु को बौद्धदर्शन के परम तत्त्व का अवगमन करा देना चाहते हैं वे उस -परम तत्त्व से अति दूर हैं और वे अपने कार्य में विफल रहेंगे।' इससे हमें बौद्धाचार्य की. दृष्टि में हेतुविद्या का महत्त्व क्या है और उसकी मर्यादा क्या है इसका पता चलता है। 3 प्रमाणसमुच्चय में बौद्ध प्रमाणशास्त्रका बीजवपन धर्मप्रचारकी दृष्टिसे हेतुविद्या का महत्त्व जब स्थापित हो गया तब अपने दार्शनिक मन्तव्योंके अनुकल हेतुविद्या का विकास करना आवश्यक हो जाय यह स्वाभाविक है। आचार्य दिग्नाग तक स्थिति यह रही कि सर्वसामान्य हेतुविद्या का आश्रय लेकर बौद्ध अपने मन्तव्योंकी स्थपना वाद-विवाद में करते रहे किन्तु स्वतंत्र बौद्ध दृष्टिसे हेतुविद्या का निरूपण करने का प्रयत्न नहीं हुआ। वाद-विवाद के प्रसंगमें बौद्धों को उस सर्वमान्य हेतुशास्त्र या , हेतुविद्या की त्रुटियाँ भी ध्यान में आना स्वाभाविक है और यह पता लगना भी स्वाभाविक , है कि उनके सूक्ष्म सिद्धान्तों की स्थापना के लिए प्रचलित साधन संपूर्णतः समर्थ नहीं है, उसमें परिवर्तन की आवश्यकता है। अतएव यह ज्ञात हो गया कि सिर्फ दूसरों के सिद्धान्तों की ही परीक्षा करना आवश्यक नहीं, किन्तु परीक्षा के साधन की भी परीक्षा उतनी ही आवश्यक है। इसी विचार से दिग्नागने बौद्ध दृष्टिको लेकर प्रमाणशास्त्र के विविध प्रन्थों की रचना की। आचार्य दिग्नागका समय मुख्यतः बौद्ध परंपराके आधार पर डॉ. विनयतोष भट्टाचार्यने 345-425 ई० माना है। कांचीके पासके सिंहवक्त्रके ब्राह्मण कुलमें दिग्नागने जन्म लिया था। वात्सीपुत्रीय नागदत्त ने दिग्नागको बौद्ध दीक्षा देकर हीनयान में प्रविष्ट किया था किन्तु बादमें वे महायानो वसुबन्धु के शिष्य बन गए। उसके बाद वे नालंदा में आकर रहे और इधर-उधर भ्रमण करके अन्य तीथिकों को बाद में परास्त करते रहे। इससे उनकी उपाधि 'तर्कपुंगव' बन गई थी। उन्होंने अपने जीवन का अधिकांश आन्ध्र Bu-ston: History of Buddhism, Part I, P. 46. 2 तत्त्वसंग्रह प्रस्तावना पृ० 73. . नयचक्रवृत्तिमें दिग्नागको वसुबन्धु के शिष्य रूपसे उल्लिखित किया है-“इदानीं वसूबन्धोः स्वगुरोः 'ततोऽर्थाद् विज्ञानं प्रत्यक्षम्' इति ब्रुवतो यदुत्तरमभिहितं "दिन्नेन वसुबन्धुप्रत्यक्षलक्षणं दूषयता"-नयचक्रवृत्ति पृ० 96 (मुनि श्री जंबूविजयसंपादित)