________________ प्रस्तावना में। दार्शनिक मन्तव्य के शून्यवाद या विज्ञानवाद के मध्यकालीन ग्रन्थों में भी यदि प्रौढ़ता है तो उसका कारण भी यही है कि उन मन्तव्यों की विवेचना नूतन प्रस्थापित प्रमाणमार्ग के . अवलम्बन से की गई है। खासकर सुविवेचित अनुमानप्रणाली का आश्रय लेकर मन्तव्यों की स्थापना की गई है। शून्यवाद जैसे अतिगहन वाद को भी अनुमानप्रदर्शित युक्तियों के बल से ही स्थापित किया गया है और यदि प्रमाणपद्धति का निरास भी किया गया है तो उसमें भी प्रमाणपद्धति का अवलम्बन है ही। फलस्वरूप प्रमाणशास्त्र के विषय में मध्यकाल में इतना लिखा गया कि स्वयं उस साहित्य का एक पृथक् वर्ग बौद्ध साहित्य में हो गया। इतना ही नहीं, उस विद्या का अनिवार्य अध्ययन भी आध्यात्मिक साधक के लिए भी आवश्यक हो गया। 4. धर्मकीर्ति और उनकी परंपरा आचार्य दिग्नागने प्रमाणसमुच्चय लिखकर जब बौद्ध प्रमाणशास्त्रका बीजवपन किया - तब उसकी प्रतिक्रिया वैदिक दार्शनिकों में होना स्वाभाविक था। न्यायदर्शनके व्याख्याकारों में उदद्योतकरने आचार्य दिग्नाग के मन्तव्यों का खण्डन करके न्यायशास्त्र की प्रतिष्ठा सुरक्षित की। मीमांसक कुमारिल ने भी दिग्नागके प्रमाणविचार का खण्डन करके मीमांसकों के मन्तव्यों को सुदृढ़ बनाया। इसी प्रकार अन्य मल्लवादी जैसे जैन आचार्यों ने भी दिग्नाग के मन्तव्यों की समालोचना की। इस समालोचना के फलस्वरूप बौद्ध विद्वानों को भी अपने प्रमाणशास्त्र के विषय में पुनर्विचार करने का अवसर उपस्थित हआ। उन विद्वानों में धर्मकीति एक ऐसा विद्वान हुआ जिसने आचार्य दिग्नाग के दार्शनिक विचारों का सुविशद विवरण किया। इतना ही नहीं, उद्योतकर कुमारिल आदि वैदिक दार्शनिकों की समालोचना करके बौद्ध प्रमाणशास्त्र की भूमिका को सुदृढ़ बनाया। उन्होंने केवल वैदिक विद्वानों की ही समालोचना नहीं की, स्वयं दिग्नाग की भी समालोचना कुछ गौण विषयों में की और दिग्नाग के शिष्य ईश्वरसेन, जिन्होंने दिग्नाग के मन्तव्यों का अपनी समझ के अनुसार व्याख्यान किया था, उनकी भी समालोचना करके बौद्ध विज्ञानवाद के आधारभूत प्रमाणविचार को सुदृढ़ बनाया। इसीलिए वे वार्तिककारके नाम से विख्यात हुए। बुदोन (Bu-ston) के अनुसार धर्मकीर्ति के सातों ग्रन्थ प्रमाणसमुच्चय के वार्तिकरूप है। किन्तु स्वयं धर्मकीतिने तो प्रमाणवातिक को ही वातिक कहा है। वस्तुतः प्रमाणसमुच्चय में प्रतिपादित विषयों का ही विशेष विवरण धर्मकीर्ति के ग्रन्थों में होने से उन्हें प्रमाणसमुच्चय के वातिक मानने में असंगति नहीं है। अतएव इस दृष्टि से बुदोन का कथन भी संगत हो सकता है। किन्तु एक बात निश्चित है कि धर्मकीतिके ग्रन्थों के बन जाने के बाद दिग्नाग के ग्रन्थों का अध्ययन प्रायः बन्द हो गया। 1 Bu-ston :-History of Buddhism, p. 44.