________________ प्रस्तावना दुर्वक धर्मोत्तर के प्रशंसक हैं। एक स्थान में तो उन्होंने कहा है कि "महावैयाकरणोयं धर्मोत्तरः प्राह" (पृ० 138) / किन्तु इसका अर्थ यह नहीं है कि वह उनका अनुसरण ही करता है। कई ऐसे स्थल है जहाँ उन्होंने धर्मोत्तर की भ्रान्तियाँ दिखाई है और संशोधन भी किया है। जैसे-- "एवं तु कथमनेन न व्याख्यातमिति न प्रतीमः।"-१० 255, "तथा तु न प्रक्रान्तं धर्मोत्तरेणेति किमत्र कुर्मः"-१० 117; "अनेन पुनरेवंविधं विषयं परित्यज्यान्यं विषयमुपपादयता किमित्यात्माऽयासित इति न प्रतीमः"-१० 137, “एवं धर्मोत्तरेण कथं न व्याख्यातमिति न प्रतीमः" पृ० 212 / केवल धर्मोत्तर की ही नहीं, धर्मकीति की भी क्षति दिखाने से दुर्वेक चुकते नहींपृ० 138 / धर्मकीर्ति का सिद्धान्त है कि पक्षप्रयोग अनावश्यक है किन्तु अनुपलब्धिओं का उदाहरण देते हुए और अन्यत्र भी न्यायबिन्दु (2.30 आदि) में पक्ष का प्रयोग किया गया है। इस असंगति की ओर दुर्वेक को सूक्ष्म दृष्टि गई है और उसका समाधान दिया है कि न्यायबिन्दु के मल वाक्यों में अर्थकथन किया गया है, प्रयोगप्रदर्शन का प्रकार दिखाना आचार्य को अभीष्ट नहीं-पृ० 125 / सामान्य पद्धति यह है कि टीकाकार 'ननु' जैसे शब्दों का प्रयोग करके अनुपपत्ति दिखा कर उसका समाधान करते हैं। दुर्वेक ने भी ऐसा कई स्थानों में किया है किन्तु जो मार्मिक स्थल है वहां तो उन्होंने स्पष्ट रूप से धर्मकीर्ति और धर्मोत्तर के नाम लेकर उनके प्रमाद का प्रकटन किया है और अनुपपत्ति खड़ी की है। तथा अन्त में अपनी दृष्टि से समाधान भी दे दिया है-प० 75, 90, 97 / इससे यह सिद्ध होता है कि दुईक न्यायशास्त्र का प्रकाण्ड पंडित रहा होगा इतना ही नहीं किन्तु स्वतंत्र दृष्टि से विचार करने वाला भी था। सामान / 'जैसे को तैसा' उत्तर देने में भी दुर्वेक कुशल है। जयन्त ने न्यायमञ्जरी में बौद्धों * 'के तादात्म्य-तदुत्पत्तिसंबन्ध का निराकरण करते हुए आक्षेप किया था "अन्यपि सौगतोद्गीतप्रतिबन्धद्वयोज्झिताः / कियन्तो बत गण्यन्ते हेतवः साध्यबोधकाः ॥"-न्यायमंजरी 10 117 / उसका उल्लेख पूर्वपक्ष में दुर्वेक ने "कियद्वा शक्यते निदर्शयितुम्" (पृ० 115 ) इन शब्दों में किया है और फिर उत्तर पक्ष में कहा है-"कियद्वा शक्यते परिहर्तम् ? एतावदुच्यते"-पृ० 116 / दुर्वेक ने संस्कृत मुहावरों और न्यायों का प्रयोग करके इस दार्शनिक रूखे ग्रन्थ को भी सरस बना दिया है। उनमें से कुछ यहां दिये जाते हैं अशोकवनिकाचोद्यसदृशम्-पृ० 2; काकतालीयार्थसिद्धिः-३२; काकतालीयन्यायः पृ० 25, 96; गडप्रवेशेऽक्षितारानिर्गमो जातः-पृ० 27; जलतरङगन्यायः-१० 194; . वण्डाज्जयन्यायः-१० 4, न लौकिको न परीक्षकः-पृ०६, निगडाकर्षणन्यायन-पृ० 53; मनोमोवकोपममात्र-१० 136; मत्वा शीर्वा-पृ० 6, 50 इत्यादि अहो शब्दार्थव्यव