________________ 58 प्रस्तावना जाती है। किन्तु उन सभी टिप्पणों की जो यह विशेष शैली है उसका परिपाक दुर्वेक के . ' इस प्रवीप में देखने को मिलता है। भाषा प्रौढ और सुश्लिष्ट है तथा मुहावरों से सुसंपन्न है। निरर्थक चर्चा करना, खींचखांच करके अर्थ निकालना दुर्वेक को पसंद नहीं है। अतएव वह बार बार कहता है कि "अपि च किमेतदन्यथा नोपपद्यत एव येनैवं मृत्वा शीवोपपाद्यते"-पृ० 6; "मृत्वा शीर्वा यथाकथंचित् सर्वस्यास्य समर्थने च वक्तुरकौशलमेव स्यादिति"-१० 50%; "मृत्वा / शीर्वा च तद्योजने वक्तुरकौशलं स्यात्"-पृ० 255 / टीका करते समय प्रतीत होता है कि उन्होंने अपने समक्ष न्यायबिन्दु की समग्र उपलब्ध टीकाओं और अनुटीकाओं का संग्रह किया था। अतएव कई स्थानों में वे अनेक पूर्वटीकाकारों के मतों का उल्लेख करते हैं और पाठान्तरों की भी चर्चा करते हैं। कई . स्थान ऐसे हैं जहां अनेक मतोंके अवतरण देने के बाद वे कह देते हैं कि 'अत्र सारासारं सन्त एव विवेचयिष्यन्ति-पृ० 9; "अत्र च साधु असाधु वा व्याख्यानं साधुभिरेव ज्ञात-. . व्यमिति"-पृ० 145 / न्यायबिन्दु को समग्ररूप से अधीत करके दुर्वेक ने यहीं निष्कर्ष निकाला है कि प्रस्तुत ग्रन्थ बाह्य दृष्टि से अर्थात् व्यवहार दृष्टि से सौत्रान्तिक मत का आश्रयण करके ही धर्मकीति ने लिखा है। अतएव न्यायबिन्दु के कुछ वाक्यों की संगति सहज भाव से योगाचार के सिद्धान्तों से होती हो तो यह आनुषंगिक है, सर्वत्र संगति आवश्यक नहीं है और जहाँ योगाचार मत के साथ संगति न हो वहाँ खींचातान करके अर्थ घटाने की : आवश्यकता नहीं है। दुर्वक आधुनिक काल में प्रचलित संशोधन पद्धति से सर्वथा अनभिज्ञ था यह नहीं कहा जा सकता। उनकी निम्न चर्चा इस बात की साक्षी है "भावनाशब्देन विग्रहं तस्य चार्थमाचष्टे भूतस्येति। भूतार्थस्येति द्रष्टव्यम् / लक्ष्यते च भूतशब्दसान्निध्यात् लेखकेन प्रथमपुस्तके भूशब्दः प्रक्षिप्तः। तस्येति वचनं संक्षेपेण विग्रह दर्शयतो धर्मोत्तरस्य पाठोऽन्यथा यथाभूतं विग्रहं दर्शयितुकामेन अर्थपदोपादाने किमक्षरगौरवं दृष्टं येन केवलभूतशब्दोपादाने प्रतिपत्तिगौरवं लिखनाकौशलं चाविष्कृतमिति।" 1067 / . . 'तु' 'ननु च' 'च' जैसे शब्दों का अर्थ जब दुर्वेक करते हैं तब भी उनकी साहित्यिक प्रतिभा का दर्शन होता है।' 'उत्पश्यामः' जैसे शब्दों का विशेषार्थ तो जैसे धर्मोत्तर के मनोगत भावों का साक्षात्कार करके किया गया हो ऐसा प्रतीत होता है। ' इसके लिए परिशिष्ट नं० 6 और 7 देखें। 2 पृ० 19, 25, 29, 83, 99, 100, 111, 127, 160, 181, 230, 233, 252 / 3 धर्मोत्तरप्रदीप पृ० 27, 42-44, 127 / 4 धर्मोत्तरप्रदीप पृ० 13, 14, 15, 33 आदि / 5 धर्मोत्तरप्रदीप पृ० 14 /