________________ प्रस्तावना स्थापनकौशलम्-पृ० 60; न च राजशासनं किञ्चिद् उत्पश्यामः-१० 60; कदलोगर्भ- . निःसारं-पृ० 63 इत्यादि। दुर्वेक ने अपनी दोनों टीकाके प्रारम्भ में मत्सरी पंडितों को अच्छा उलाहना दिया है कि वे पंडित भले ही हों किन्तु सन्त नहीं हैं। सन्त पुरुष ही गुणपरीक्षा कर सकते हैं। पंडितों में प्रायः मात्सर्यभाव अधिक होगा ऐसा लगता है, क्योंकि बड़े बड़े लेखकों के लिखे गए ग्रन्थों में भी इस प्रकार का उपालंभ प्रायः देखा जाता है। दुर्वेक के व्यक्तिगत जीवन के विषय में कुछ भी ज्ञात नहीं। केवल इतना ही ज्ञात होता है कि वह जितारिका शिष्य था। उसने अपनी दरिद्रता का स्वीकार हेतबिन्द टीका के आलोक के अन्त में किया है। दुर्वेक का समय पं० श्री सुखलालजी ने डॉ० विद्याभूषण के आधार पर दशवीं शताब्दी का अंतिम चरण और 11 वीं का पूर्वार्ध माना है, क्योंकि दीपंकर के गुरु जितारि थे और जितारि और दीपंकर दोनों दशवीं शताब्दी के अंत में विद्यमान थे। दुर्वेक ने धर्मोत्तरप्रदीप में अपने अन्य ग्रंथ विशेषाख्यान, अर्चटालोक (हेतुबिन्दुटीकालोक) और स्वयूथ्यविचार का उल्लेख किया है। इस प्रकार उन्होंने चार प्रन्थों की तो रचना की थी यह माना जा सकता है। हेतुबिन्दुटीकालोक को प्रति भी श्री राहुल जी तिब्बत से लाए थे और प्रस्तुत धर्मोत्तरप्रदीप की प्रति भी वहीं से वे लाए थे। अन्य ग्रंथों का पता अभी तक लगा नहीं है। 1 "ये नूनं प्रथयन्ति नोऽसमगुणा मोहादवज्ञां जनाः। ते तिष्ठन्तु न तान्प्रति प्रयतितः प्रारभ्यते प्रक्रमः / " प्रमेयक० पृ० 1 / “सन्तः प्रणयिवाक्यानि गृह्णन्ति ह्यनसूयवः / / न चात्रातीव कर्तव्यं दोषदृष्टिपरं मनः / दोषो ह्यविद्यमानोपि तच्चित्तानां प्रकाशते / " इत्यादि श्लोकवा० कुमारिल / “प्रायः प्राकृतसक्तिरप्रतिबलप्रज्ञो जनः केवलं, नानर्थ्यव सुभाषितैः परिगतो विद्वेष्ट्यपीमिलैः / तेनायं न परोपकार इति नश्चिन्तापि चेतस्ततः, सूक्ताभ्यासविवर्धितव्यसनमित्यत्रानुबद्धस्पृहम् // " प्र० वा० 1. 2; "ये नाम केचिदिह नः प्रथयन्त्यवज्ञां जानन्ति ते किमपि तान्प्रति नैष यत्नः / उत्पत्स्यते मम तु कोऽपि समानधर्मा कालो ह्ययं निरवधिविपुला च पृथ्वी।" भवभूति-मालतीमाधव / 2 "दारिद्रयदुःखादभियोगमात्राद् विशुद्धबुद्धेविरहादबोधात् नास्तीह सूक्तं मम यत्पुनः स्यात् गुरोजितारेः स खलु प्रसादः // " हेतु० आ० पृ० 411 . History of Indian Logic p. 337; हेतुबिन्दुटीका-प्रस्तावना पृ० 12