________________ प्रस्तावना हैं और कुमारिल का समय भी तदनुसार बदल जाता है तो कोई कारण नहीं कि कुमारिल के समय के आधार पर निश्चित किया जाने वाला धर्मकीतिका भी समय न बदले / आचार्य धर्मकीति के मन्तव्यों का निरास वैशेषिक दर्शन में व्योमशिव ने, मीमांसावर्शन में शालिकनाथ ने, न्यायदर्शन में जयन्त और वाचस्पति मिश्र ने, वेदान्त में भी वाचस्पति मिश्र ने और जैनदर्शन में अकलंकादि आचार्यों ने किया है। धर्मकीति के टीकाकारों ने यथासंभव उन आक्षेपों का निराकरण करने का प्रयत्न किया है। धर्मकीति के टीकाकारों को प्रो० चिरवासुकी (Prof. Stcherbatsky) ने तीन वर्ग में विभक्त किया है। प्रथम वर्ग ऐसा है जो केवल शब्दप्रधान व्याख्या करता है। इस वर्ग के पुरस्कर्ता देवेन्द्रबुद्धि हैं। बुदोन ने कहा है कि देवेन्द्रबुद्धि आचार्य धर्मकीर्ति के साक्षात् शिष्य थे।२ प्रमाणवातिक की व्याख्या देवेन्द्रबुद्धि ने दो बार लिखी और दोनों ही बार धर्मकीति ने उसे रद्द कर दिया। अंत में तीसरी बार उन्होंने जब लिखी तब असंतुष्ट होते हुए भी धर्मकीर्ति ने उस व्याख्या को मंजूर किया और सोचा कि मेरा प्रमाणशास्त्र वस्तुतः कोई यथार्थ रूप में नहीं समझ सकेगा जिससे निराश होकर प्रमाणवार्तिक के अंत में / एक कारिका लिखी जिसका तात्पर्य है कि जैसे नदी समद्र में मिलकर अपना अस्तित्व खो - देती है वही गति मेरे विचारों की होगी।' देवेन्द्रबुद्धि के अनुगामी टीकाकारों में शाक्यबुद्धि, प्रभाबुद्धि आदि हैं जिन्होंने प्रमाण- .. वातिक की व्याख्या न लिखकर प्रमाणविनिश्चय और न्यायबिन्दु की टीकाएँ की। . दूसरा वर्ग वह है जिसने धर्मकीति के तत्त्वज्ञान को महत्त्व दिया है और शब्दप्रधान व्याख्याका मार्ग छोड़कर तात्त्विक रहस्य का स्फोट किया है। बुद्ध के धर्मकाय और उनकी सर्वज्ञता की सिद्धि में उसको कोई रस नहीं। महायानसंमत वैसे बुद्धको देशकाल-स्वभाव विप्रकृष्ट होने से प्रमाणशास्त्र या तर्क का विषय ही वे नहीं मानते। अतएव शुद्ध प्रमाणशास्त्र की चर्चा करने वाले अन्य प्रमाणविनिश्चय और न्यायबिन्दु की टीका इस वर्ग के पुरस्कर्ता धर्मोत्तर ने की है। धर्मोत्तर का कार्यक्षेत्र काश्मीर में रहा, अतः उनकी परंपराको काश्मीर-परंपरा भी कहते हैं। धर्मोत्तर ने अपनी टीका में शाब्दिक व्याख्याकारों का निरास किया है और धर्मकीति के तात्त्विक रहस्यों का स्फोट किया है। वस्तुतः धर्मकीर्तिके मन्तव्यों का स्पष्टार्थ धर्मोत्तर की टीकाओं से ही हआ। आचार्य . Stcherbatsky : Buddhist Logic Vol. I. p. 39-47. 2 Bu-ston : History of Buddhism part II p.154. Bu-ston : History of Buddhism part II p. 155. उक्त अर्थ की कोई कारिका मुद्रित प्रमाणवार्तिक के अंत में मिलती नहीं है। ध्वन्यालोक में धर्मकीर्ति के नाम से एक कारिका आती है। उसीका भावार्थ बुदोन देता है ऐसा प्रतीत होता है अनध्यवसितावगाहनमनल्पधीशक्तिनाप्यदृष्टपरमार्थतत्त्वमधिकाभियोगैरपि / मतं मम जगत्यलब्धसदृशप्रतिग्राहकं प्रयास्यति पयोनिधे: पय इव स्वदेहे जराम्॥ ध्वन्यालोक, पृ० 217 /