________________ प्रस्तावना आचार्य अकलंक' ने धर्मोत्तर के मत का निरास किया है। आचार्य अकलंक का समय पं० महेन्द्रकुमारजी ने 720-780 ई० के बीच माना है। अतएव धर्मोत्तर का समय श्री राहुल जी ने ई० 725 जो माना है उसके स्थान में 700 ई० से भी कुछ पूर्व माना जाय तो अनुचित न होगा। आचार्य धर्मकीर्ति के साक्षात् शिष्य देवेन्द्रति मके शिष्य शाक्यमति के शिष्य प्रज्ञाकरके समकालीन धर्माकरदत्त का शिष्य धर्मोत्तर है। प्रत्येक पीढी के लिए 25 वर्ष देकर के श्री राहुल जी ने धर्मकीति और धर्मोत्तर के बीच 100 वर्ष का अंतर रखा है। यह परंपरा गुरुशिष्य परंपरा होने से यह आवश्यक नहीं कि सभी के बीच उतना अंतर हो ही। अतएव धर्मोत्तर को ई० 700 पूर्व और उनके गुरु धर्माकरदत्त को उनका वृद्ध समकालीन मानें तो अनुचित न होगा। यहाँ व्यक्तिकी अपेक्षा उनके ग्रंथलेखन का समय ही व्यक्ति का समय समझना चाहिए। अतएव क्रम यह है कि प्रथम धर्माकरदत्त ने हेतुबिन्दुटीका लिखी, तदनन्तर उनके शिष्य धर्मोत्तर ने अपनी टीकायें लिखीं। आचार्य धर्मोत्तर ने न्यायबिन्दुटीका के अतिरिक्त निम्न ग्रन्थ भी लिखे हैं प्रामाण्यपरीक्षा-प्रमाणपरीक्षा इस नाम के ग्रन्थ का उल्लेख श्री विद्याभूषण ने किया है। किन्तु दुवैक ने धर्मोत्तरप्रदीप में "अनेनैव प्रामाण्यपरीक्षायाम् निर्लोठितमिति" ऐसा कहा है / उससे पता चलता है कि उस ग्रन्थ का सही नाम प्रामाण्यपरीक्षा था। श्री राहुल जी ने धर्मोत्तर के ग्रन्थों में लघुप्रमाणपरीक्षा नामक ग्रन्थ का उल्लेख किया है किन्तु श्री विद्याभूषण ने उसका उल्लेख नहीं किया। संभव है प्रामाण्यपरीक्षा, प्रमाणपरीक्षा और लघुप्रमाणपरीक्षा ये सब नाम एक ही ग्रन्थ के हों। .. अपोहप्रकरण' या अपोहनामप्रकरण -इस ग्रन्थ में व्यावृत्ति या अपोह का निरूपण है। संस्कृत उपलब्ध नहीं है किन्तु इसका तिब्बती अनुवाद उपलब्ध है जो काश्मीर के पण्डित भव्यराज और तिब्बती लामा ब्लो-ल्दन्-शेष्-रब् ने किया था। देखो Mdo. cxii. 14. ' न्यायविनिश्चयविवरण पृ० 530-531 2 अकलंकग्रन्थत्रय, प्रस्तावना-पृ० 32 3 History of Indian Logic, p. 330. 4 धर्मोत्तरप्रदीप पृ० 24 5 वादन्याय परिशिष्ट--पृ० 11 / बादन्याय परिशिष्ट-पृ० 12 " History of Indian Logic, p. 330.