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केवल वह, जो झूठी मृग-मरीचिका की पागल-दौड़ से स्वयं को अलग कर लेता है। जो लोग जीवन को तीर्थयात्रा मानकर जी रहे हैं, वे हर तरह की बाधाओं के बावजूद सुख-शान्ति के स्वामी बने रहते हैं। अन्य तीर्थ तो ईंट-चूने-पत्थर के बने होते हैं, पर जीवन तो चलताफिरता तीर्थ है। जीवन को शांति, होश और बोधपूर्वक जीना एक समग्र तीर्थ-यात्रा है। शान्तिपूर्वक हर दिन की शुरुआत करना और शान्तिप्रिय बनकर ही हर दिन का समापन करना इस तीर्थ-यात्रा का सबसे बड़ा सुकून है।
मनुष्य तो अनगिनत शक्तियों और सम्भावनाओं का संवाहक है। वह मिट्टी से बना है और उसे एक दिन मिट्टी में ही समा जाना है। अगर वह ऐसा कोई भव्य पराक्रम करे तो वह मात्र मिट्टी नहीं रहेगा, मिट्टी का वह दीया बन जाएगा जिसमें दिव्यता की रोशनी जगमगाती है। वह अपने आपको अमृत बना सकता है, मनुष्य के शरीर में भी देवता बनकर जी सकता है। जीवन में दिव्यता आ जाए तो मनुष्य के लिए मनुष्य होना बड़े गौरव की बात है। देवत्व मनुष्य-जीवन का ही परम विकास है।
पशु और प्रभु दोनों मनुष्य के ही सिक्के के दो पहलू हैं। अगर वह मनुष्यत्व से गिरता है तो वह पशु है। अगर वह मनुष्यत्व से ऊपर उठता है तो वह मनुष्य के रूप में भी प्रभु है। डीओजी डॉग कहलाता है, पर अगर इसकी फितरत उलट दी जाए तो यही जीओडी गॉड बन जाता है। यदि इंसान अपनी सोच और स्वभाव को सरल, सौम्य और उदार बना ले तो निश्चित तौर पर हमारे क़दम देवत्व की ओर होंगे। स्वार्थ, आपसी छीना-झपटी, ईर्ष्या और क्रोध जैसे मनोविकारों से घिरकर तो मनुष्य पशु ही कहलाएगा। दिव्यता हो मनुष्य के कर्म में,
व्यवहार में, भाषा में, सोच और आत्मा में। जिसके पास दिव्यता है 10
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